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________________ ( १४ ) षटूखंडागमकी प्रस्तावना या उद्योतका बंध करता हुआ मिथ्यादृष्टि २६ प्रकृतियोंको बांधता है ( सूत्र ७६ ) । तिर्यंचगति सहित एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर या सूक्ष्मका बंध करता हुआ, अथवा त्रस एवं अपर्याप्तका बंध करता हुआ मिथ्यादृष्टि भिन्न प्रकारसे २५ प्रकृतियोंको बांधता है ( सूत्र ७८, ८० ) । तियंचगति सहित एकेन्द्रिय अपर्याप्त और बादर या सूक्ष्मका बंध करता हुआ मिथ्यादृष्टि २३ प्रकृतियां बांधता है (सूत्र ८२ ) । मनुष्यगति सहित पंचेन्द्रिय और तीर्थंकर प्रकृतियोंको बांधता हुआ असंयत सम्यग्दृष्टि जीव ३० प्रकृतियों का बंध करता है । मनुष्यगति सहित पंचेन्द्रिय पर्याप्तको बांधता हुआ सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, सासादन व मिथ्यादृष्टि भिन्न प्रकार से २९ प्रकृतियोंको बांधता है (सू. ८७, ८९, ९१ ) । मनुष्यगति सहित पंचेन्द्रिय अपर्याप्तको बांधता हुआ मिथ्यादृष्टि २५ प्रकृतियोंका बंध करता है ( सू. ९३ ) । देवगति सहित पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, आहारक और तीर्थंकर प्रकृतियोंका बंध करता हुआ अप्रमत्तसंयत या अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीव ३१ प्रकृतियोंको बांधता है ( सू. ९६ ) । वही जीव तीर्थंकर प्रकृतिको छोड़कर ३० का एवं आहारकको भी छोड़कर २९ का बंध करता है (सू. ९८, १०० ) । देवगति सहित पंचेन्द्रिय पर्याप्त तीर्थंकर को बांधता हुआ असंयतसम्यग्दृष्टि या संयतासंयत जीव भी २९ प्रकृतियोंको बांधता है (सू. १०२ ) । देवगति सहित पंचेन्द्रिय पर्याप्तका बंध करता हुआ अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अथवा मिथ्यादृष्टि, सासादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत व संयत जीव २८ प्रकृतियोंका बंध करता है ( सू. १०४, १०६ ) । जब संयत जीव यशःकीर्तिका बंध करता है तत्र केवल इस एक नामप्रकृतिका ही बंध होता है (सू. १०८ ) । इस प्रकार यद्यपि एक साथ बंधनेवाली प्रकृतियोंकी संख्याकी अपेक्षा नामकर्मके आठ बंधस्थान हैं तथापि संस्थान, संहनन एवं विहायोगति आदि सात युगलों के विकल्पोंसे बंधस्थानोंके भेद कई हजारोंपर पहुंच गये हैं ( देखा सू. ८९, ९१ ) । गोत्रकर्मके केवल दो ही बंधस्थान हैं । मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि जीव नीचगोत्रका और शेष उच्चगोत्रका बंध करते I अन्तरायकर्मका केवल एक ही बंधस्थान है क्योंकि मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयत तक सभी जीव पांचों ही अन्तरायोंका बंध करते हैं । इस चूलिकाका विषय भी प्रथम चूलिकाके समान महाकर्म प्रकृतिप्राभृतके बंधविधान के समुत्कीर्तना अधिकारसे लिया गया है । इसकी सूत्रसंख्या ११७ है । ३. प्रथम महादंडक चूलिका इस चूलिकामें केवल दो सूत्र हैं जिनमेंसे एकमें ऐसी प्रकृतियां बतलाने की प्रतिज्ञा की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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