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________________ विषय-परिचय चाहिये कि सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन दो प्रकृतियोंका तो बंध होता ही नहीं है, वे तो सम्यक्त्व उत्पन्न होते समय मिथ्यात्वके तीन टुकड़े हो जानेसे सत्त्वमें आ जाती हैं । तथा तीन वेदों और हास्य-रति व अरति-शोक इन दो युगलोंमेंसे एक साथ एक ही का बंध सम्भव होता है। मोहनीयके दूसरे बंधस्थानमें सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हैं जो उपर्युक्त वाईसमेंसे एक नपुंसकवेदको छोड़ शेष इक्कीस प्रकृतियोंका बंध करते हैं। तीसरे स्थानमें सम्पग्मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं जो उक्त इक्कीसमेंसे चार अनन्तानुबंधी कषायों व स्त्रीवेदको छोड़ शेष सत्तरहका बंध करते हैं। चौथे स्थानमें संयतासंयत जीव हैं जो चार अप्रत्याख्यान कषायोंका भी बंध नहीं करते, केवल शेष तेरहका करते हैं। पांचवें स्थानमें वे संयत जीव हैं जो चार प्रत्याख्यान कषायोंका भी बंध नहीं करते, पर शेष नौका करते हैं। छठवें स्थानमें वे संपत जीव हैं जो मोहनीयकी अन्य प्रकृतियोंको छोड़ केवल चार संज्वलन और पुरुषवेद, इन पांचका ही बंध करते हैं । सातवें स्थानमें वे संयत जीव हैं जो पुरुषवेदको भी छोड़ केवल संचलनचतुष्कको बांधते हैं । आठवें स्थानमें वे संयत हैं जो क्रोध संज्वलनको छोड़ शेष तीनका ही बंध करते हैं । नौवें स्थानवाले वे संयत हैं जो मान संज्वलनका भी बंध करना छोड़ देते हैं व केवल शेष दो का बंध करते हैं । दशवें स्थानमें केवल लोभ संज्वलनका बंध करनेवाले संयत हैं । आयुकर्मकी चारों प्रकृतियोंके अलग अलग चार बंधस्थान हैं- एक नरकायुको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टिका; दूसरा तिर्यंचायुको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टिका; तीसरा मनुष्यायुको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि, सासादन व असंयतसम्यग्दृष्टिका; और चौथा देवायुको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि, सासादन, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत व संयतका । यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव किसी भी आयुको नहीं बांधता । __ नामकर्मके बंधयोग्य प्रकृतियोंकी संख्याके अनुसार आठ बंधस्थान हैं जिनमें क्रमशः ३१, ३०, २९, २८, २६, २५, २३ और १ प्रकृतियोंका बंध किया जाता है। इन स्थानोंका चार गतियोंके अनुसार इस प्रकार निरूपण किया गया है- नरकगति और पंचेन्द्रिय पर्याप्तका बंध करता हुआ मिथ्यादृष्टि जीव २८ प्रकृतियोंको बांधता है ( सूत्र ६२)। तियंचगति सहित पंचेन्द्रिय पर्याप्त व उद्योतका बंध करता हुआ मिथ्यादृष्टि जीव अथवा सासादन जीव एवं तिर्यंचगति सहित विकलेन्द्रिय पर्याप्त व उद्योतका बंध करता हुआ मिथ्यादृष्टि जीव भिन्न प्रकारसे ३० प्रकृतियोंको बांधता है (सूत्र ६४, ६६, ६८)। तिर्यंचगति सहित पंचेन्द्रिय पर्याप्तका बंध करता हुआ मिथ्यादृष्टि या सासादनसम्यग्दृष्टि एवं तियंचगति सहित विकलेन्द्रिय पर्याप्तका बंध करता हुआ मिथ्यादृष्टि जीव भिन्न प्रकारसे २९ प्रकृतियोंको बांधता है (सूत्र ७०, ७२, ७४) । तियंचगति सहित एकेन्द्रिय बादर पर्याप्त और आताप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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