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________________ ( १२ ) षट्खंडागमकी प्रस्तावना वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय, इस क्रमसे आठ प्रधान कर्मों का स्वरूप बतलाया गया है और फिर उनकी क्रमशः पांच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, ब्यालीस, दो और पांच प्रकृतियां बतलाई गयी हैं । नामकी ब्यालीस प्रकृतियोंके भीतर चौदह प्रकृतियां ऐसी हैं. जिनकी पुनः क्रमशः चार, पांच, पांच, पांच, पांच, छह, तीन, छह, पांच, दो, पांच, आठ, चार, और दो, इस प्रकार पैंसठ उत्तरप्रकृतियां हो गईं हैं; अतएव नामकर्मके कुल भेद ६५ + २८ = ९३ हुए, जिससे आठों कर्मोंकी समस्त उत्तरप्रकृतियां एकसौ ( १४८ ) हुई हैं । इसमें ४६ सूत्र हैं जिनका विषय आग्रायणीय पूर्वकी चयनलब्धि के अन्तर्गत महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके सातवें अधिकार बंधन के बन्धविधान नामक विभागान्तर्गत समुत्कीर्तना अधिकारसे लिया गया है । २ स्थानसमुत्कीर्तन चूलिका प्रकृतियोंकी संख्या व स्वरूप जान लेनेके पश्चात् यह जानना आवश्यक होता है कि उनमेंसे प्रत्येक मूलकर्मकी कितनी उत्तरप्रकृतियां एक साथ बांधी जा सकती हैं और उनका बंध कौन कौनसे गुणस्थानों में संभव है । यह विषय स्थानसमुत्कीर्तन चूलिका में समझाया गया है । यहां सूत्रोंमें गुणस्थान निर्देश चौदह विभागों में न करके केवल संक्षेपके लिये छह विभागोंमें किया गया है - मिथ्यादृष्टि, सासादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत । इनमेंके प्रथम पांच तो गुणस्थान क्रमसे ही हैं, किन्तु अन्तिम विभाग संयतमें छठवें गुणस्थान से लेकर ऊपरके यथासंभव सभी गुणस्थानोंका अन्तरभाव है जिनका उपपत्ति सहित विशेष स्पष्टीकरण धवलाकारने किया है । ज्ञानावरणकी पांचों प्रकृतियों का एक ही स्थान है, क्योंकि मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयत तक सभी उन पांचों ही का बंध करते हैं । दर्शनावरणके तीन स्थान हैं । पहले स्थान में मिथ्यादृष्टि और सासादन जीव हैं जो समस्त नौ ही प्रकृतियोंका बंध करते हैं। दूसरेमें सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि संयत तकके जीव हैं जो निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगुद्धि, इन तीनको छोड़ शेष छह प्रकृतियोंको बांधते हैं। तीसरे स्थानमें वे संयत जीव हैं जो चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल, इन चार दर्शनावरणों का ही बंध करते हैं । वेदनीयका एक ही बंधस्थान है, क्योंकि मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयत तक सभी जीव साता और असाता इन दोनों वेदनीयोंका बंध करते हैं । मोहनीय कर्मके दस बन्धस्थान हैं । पहले स्थान में मिथ्यादृष्टि जीव हैं जो एक साथ बंध योग्य बाईस ही प्रकृतियोंका बंध करते हैं। यहां इस बात का ध्यान रखना I १ देखो आगे दी हुई तालिका | २ देखो पुस्तक १, पृ. १२७, व प्रस्तावना पू. ७३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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