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________________ विषय-परिचय (११) सम्यक्त्वोत्पत्तिमें २०४ से २२० तक, एवं गत्यागतिमें २२० से ३६८ तक सूत्रसंख्या पाई जाती है। ऐसी अवस्थामें हमारे सन्मुख दो प्रकार उपस्थित हुए कि या तो प्रथमसे लेकर नौवीं तक सभी चूलिकाओंमें सूत्रक्रमसंख्या एकसी चालू रखी जावे, या फिर सबकी अलग अलग । यह तो बहुत विसंगत बात होती कि प्रतियोंके अनुसार प्रथम दो चूलिकाओंका सूत्रक्रम पृथक् पृथक् रखकर शेषका एक ही रखा जाय, क्योंकि ऐसा करनेका कोई कारण हमारी समझमें नहीं आया । प्रत्येक चूलिकाका विषय अलग अलग है और अपनी अपनी एक विशेषता रखता है। सूत्रकारने और तदनुसार टीकाकारने भी प्रत्येक चूलिकाकी उत्थानिका अलग अलग बांधी है। अतएव हमें यही उचित जंचा कि प्रत्येक चूलिकाका सूत्रक्रम अपना अपना स्वतंत्र रखा जाय । हस्तलिखित प्रतियों और प्रस्तुत संस्करणमें सूत्रसंख्याओंमें जो वैषम्य है वह हस्त प्रतियोंमें संख्याएं देनेमें त्रुटियोंके कारण उत्पन्न हुआ है। वहां कुछ सूत्रोंपर कोई संख्या ही नहीं है, पर विषयकी संगति और टीकाको देखते हुए वे स्पष्टतः सूत्र सिद्ध होते हैं । कहीं कहीं एक ही संख्या दो बार लिखी गई है । इन सब त्रुटियोंके निराकरणके पश्चात् जो व्यवस्था उत्पन्न हुई वही प्रस्तुत संस्करणमें पाठकाको दृष्टिगोचर होगी। यदि इसमें कोई दोष या अनधिकार चेष्टा दिखाई दे तो पाठक कृपया हमें सूचित करें। विषय-परिचय प्रस्तुत ग्रंथ षट्खंडागमके प्रथम खंड जीवस्थानका अन्तिम भाग है जिसे धवलाकारने चूलिका कहा है। पूर्वमें कहे हुए अनुयोगोंके कुछ विषम स्थलोंका जहां विशेष विवरण किया जाय उसे चूलिका कहते है। यहां चूलिकाके नौ अवान्तर विभाग किये गये हैं जिनका परिचय इस प्रकार है १ प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका क्षेत्र, काल और अन्तर प्ररूपणाओंमें जो जीवके क्षेत्र व कालसम्बन्धी नाना परिवर्तन बतलाये गये हैं वे विशेष कर्मबन्धके द्वारा ही उत्पन्न हो सकते हैं। वे कर्मबन्ध कौनसे हैं, उन्हींका व्यवस्थित और पूर्ण निर्देश इस चूलिकामें किया गया है । यहां ज्ञानावरण, दर्शनावरण, १ सम्मत्तेसु अट्ठसु अणियोगद्दारेसु चूलिया किमहमागदा ? पुन्वुत्ताणमट्ठण्णमणिओगद्दाराणं विसमपएसविवरणट्ठमागदा। पु. ६, पृ. २. चूलिया णाम किं ? एकारसअणिओगद्दारेसु सूइदत्थस्स विसे सियूण परूवणा लिया। खुदाबंध, अन्तिम महादंडक. उक्तानुक्तदुरुक्तचिन्तनं चूलिका । गो. क. ३९८ टीका. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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