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________________ शंका-समाधान ( ९ ) समाधान - उक्त विधानसे यही प्रतीत होता है कि तेजोलेश्यावाला मिथ्यादृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सानत्कुमार - माहेन्द्र कल्पमें उत्पन्न नहीं होता या उसके अधस्तन विमानमें ही उत्पन्न होता है जहां दो सागरोपम स्थितिकी संभावना है । धवलाकारने उक्त कल्पके अधस्तन विमानमें ही तेजोलेश्या के संभवका उपदेश बतलाया है (देखो पुस्तक ४, पृ. २९६ ) । फिर भी राजवार्तिक ४ - २२ में तथा गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५२१ में तेजोलेश्यासहित सानत्कुमार-माहेन्द्र कल्पके अन्तिम पटलमें जानेका विधान पाया जाता है । यह कोई मतभेद ही मालूम होता है । पुस्तक ५, पृ. २१८ २४. शंका – कोई तिर्यच जीव मनुष्यायुका बंध करके पश्चात् क्षयोपशम सम्यक्त्व साइत मरण कर मनुष्यगतिको प्राप्त हो सकता है या नहीं ! गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ५३०–५३१ में इसको स्पष्ट माना है, किन्तु षट्खंडागम जीवट्ठाणकी भावप्ररूपणाके सूत्र ३४ और उसकी टीकासे उसमें कुछ सन्देह होता है ? ( हुकमचंदजी जैन, सलावा, मेरठ ) समाधान — कृतकृत्यवेदकको छोड़ अन्य क्षयोपशमसम्यक्त्वी तिर्यंच मरण करके एक मात्र देवगतिको ही प्राप्त होता है (देखो गत्यागति चूलिका सूत्र १३१, पृ. ४६४ ) । यदि उस तिर्यंचने उक्त सम्यक्त्व प्राप्त करनेसे पूर्व देवायुको छोड़ अन्य किसी आयुका बन्ध कर लिया है तो मरणसे पूर्व उसका वह सम्यक्त्व छूट जायगा (देखो गत्यागति चूलिका, सूत्र १६४ टीका, पृ. ४७५) । जीवकाण्डकी गाथा ५३१ में केवल मनुष्य व तिर्यंचोंके भोगभूमिमें अपर्याप्त अवस्था में सम्यक्त्व होनेका सामान्यसे उल्लेखमात्र है । संस्कृत टीकाकारने वहां क्षायिक व वेदक सम्यक्त्वा विधान किया है जिससे क्षायिक व कृतकृत्यवेदकका अभिप्राय ग्रहण करना चाहिये, अन्य क्षायोपशमिक सम्यक्त्वका नहीं ( देखो भाग २, पृ. ४८१ ) । पुस्तक ५, पृ. २१८ २५. शंका- यहां सूत्र ३४ की टीकामें जहां देव, नारकी व मनुष्य सम्यग्दृष्टियों की उत्पत्ति तिर्यच व मनुष्यों में बतलायी है वहां तिर्यंच सम्यग्दृष्टि जीवोंकी भी उत्पत्ति उक्त दोनों प्रकारके जीवोंमें क्यों नहीं बतलायी ! क्या मनुष्यके समान बद्धायुष्क क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि तिर्येच मरकर तिर्येच व मनुष्यों में उत्पन्न नहीं हो सकता या मरते समय उसका वह सम्यग्दर्शन छूट जाता है ! ( नेमीचंद रतनचंदजी, सहारनपुर ) समाधान - इस शंकाका समाधान ऊपरकी शंकाके समाधानमें हो चुका है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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