SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (८) षटखंडागमकी प्रस्तावना पुरुषवेदकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण कर अन्तमें जो देवोंमें उत्पन्न होना कहा है वह कैसे सम्भव है ! पुरुषवेदकी स्थिति पूर्ण हो जानेपर तो देवियोंमें उत्पन्न कराना चाहिये था न कि देवोंमें ? (नेमीचंद रतनचंदजी, सहारनपुर) समाधान--यहां 'देवोंमें उत्पन्न हुआ' इसका अभिप्राय देवगतिमें उत्पन्न हुआ समझना चाहिये। पुस्तक ५, पृ. ११५ २२. शंका-सूत्र २३४ की टीकामें अवधिज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टिकी अन्तरप्ररूपणामें संज्ञी सम्मूछिम पर्याप्तकके अवधिज्ञानका सद्भाव कहा है। परन्तु इसके आगे सूत्र २३७ की टीकामें मति-श्रुतज्ञानी संयतासंयतोंके उत्कृष्ट अन्तरसम्बन्धी शंकाके समाधानमें उक्त जीवोंमें उसीका अभाव भी बतलाया है । इस विरोधका परिहार क्या है ? (नेमीचंद रतनचंदजी, सहारनपुर ) समाधान-संज्ञी सम्मूछिम पर्याप्त तिर्यंचोंमें वेदक सम्यक्त्व, संयमासंयम व अवधिज्ञान उत्पन्न होना तो निश्चित है, क्योंकि कालप्ररूपणाके सूत्र १८ की टीकामें संयतासंयतका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल एवं सूत्र २६६ की टीकामें आमिनिबोधिक, श्रुत और अवधिज्ञानियों का काल उक्त जीवोंमें ही घटित करके बतलाया गया है । उसी प्रकार प्रस्तुत सूत्र २३४ की टीकामें भी वही बात स्वीकृत की गई है । परन्तु सूत्र नं. २३७ की टीकामें जो उन जीवोंमें उक्त गुणोंका निषेध किया गया है वह उपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षासे है, क्योंकि उन जीवोंमें उपशम सम्यक्त्वकी प्राप्तिका अभाव है। यही बात आगे सूत्र २८८ में चक्षुदर्शनी संयतासंयतोंका अन्तर बतलाते समय टीकाकारने स्पष्ट की है । किन्तु सूत्र २३७ की टीकाके शंका-समाधानमें उपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा क्यों उत्पन्न हुई यह बात विचारणीय रह जाती है । पुस्तक ५, पृ. १४७ २३. शंका - यहां सूत्र ३०४ में तेजोलश्यावाले मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टिका तथा सूत्र ३०६ में इसी लेश्यावाले सासादन व सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर जो दो सागरोपमप्रमाण ही बतलाया गया है वह कम है, क्योंकि सानत्कुमार-माहेन्द्र कल्पोंकी अपेक्षा उक्त अन्तर सात सागरोपमप्रमाण भी हो सकता था । फिर उसकी यहां उपेक्षा क्यों की गई है ! यही शंका उपर्युक्त लेश्यावाले जीवोंके कालप्ररूपण (पु. ४ पृ. ४६३ ) में भी उठायी जा सकती है ! (नेमीचंद रतनचंदजी, सहारनपुर) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy