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________________ महावीराष्टक-प्रवचन | २३ तीर्थंकर महावीर की साधना-काल का दूसरा वर्ष है। भगवान् महावीर दक्षिणांचल से उत्तरांचल विहार करके जा रहे थे। एक मार्ग कनखल आश्रम के भीतर होकर जाता था, दूसरा बाहर से । भगवान् ने भीतर वाले मार्ग पर प्रस्थान किया। कुछ आगे बढ़े ही थे कि गोपालों ने उन्हें रोकते हुए बताया-देवार्य ! इस मार्ग से मत जाइए। इस मार्ग में भयंकर दृष्टि-विष सर्प रहता है। उसकी दृष्टि में विष है। उसकी फुकार से वनस्पति जगत् नष्ट हो गया है। आस-पास मृत्यु नाच रही है। कोई नहीं जाता है इस मार्ग से। आप मत जाइए। लोगों के रोकने पर भी रुके नहीं महावीर । उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं था। वह अभय का देवता पहुँचा विषधर के पास। इसका अर्थ यह भी नहीं कि मृत्यु के मुंह में जाकर शरीर को नष्ट करना है। शरीर को दंड देना साधना नहीं है। साधना के नाम पर शरीर के साथ उत्पीडन का व्यवहार नहीं करना है। शरीर और शरीर से संबंधित जीवन-मृत्यु सबको संवारना, साधना है । जीवन और मृत्यु के भय से मुक्त एवं निर्भय होना साधना है। शरीर का साधना और आत्मभाव में लीन होना साधना है। शरीर की अपनी भूमिका है, वह भी साधना में सहयोगी है। शरीर भी मित्र है, शरीर के प्रति भी मैत्री का भाव है। उसकी अस्वस्थता, उसके सौन्दर्य के प्रति नफरत कैसे हो सकती है? महावीर पूर्ण स्वस्थ हैं, सुन्दर हैं, आत्मा के अजन्मा होने की विलक्षण आभा है महावीर की। तभी तो प्रायः भक्ति-स्तोत्र के रचनाकारों ने तीर्थंकर वीतरागी के शरीर के सौन्दर्य का भावविभोर हो वर्णन किया है। भक्तामर स्तोत्र के रचनाकार आचार्य मानतुंग कह दृष्ट्वा भवन्तमनिमेषविलोकनीयम् नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः । प्रभो ! आपका अलौकिक सौन्दर्य निर्निमेष-एकटक देखने योग्य है। एक बार आपके दर्शन करने के बाद आंखें कहीं अन्यत्र संतुष्ट ही नहीं हो सकतीं। __ यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वम्, निर्मापितस्त्रिभुवनैक ललामभूत । तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्याम्, यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति । त्रिभुवन के ललामभूत जिनेश्वरदेव ! आप उज्ज्वल परमाणुओं से निर्मित हुए हैं। निश्चित ही वे परमाणु पृथ्वी पर उतने ही थे। तभी आप जैसा दूसरा रूप है नहीं इस पृथ्वी पर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001376
Book TitleMahavirashtak Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1997
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size3 MB
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