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________________ २२ । महावीराष्टक-प्रवचन प्रार्थना का अर्थ है-अपनी अर्थवत्ता को पाना। यह जीवन की वह अर्थवत्ता है जो न जन्म से बढ़ती है, न मृत्यु से घटती है। न किसी जाति, कुल, घराने से बढ़ती है, न घटती है। वह अर्थवत्ता आयु, यौवन आदि शरीर की अवस्थाओं में न घटती है, न बढ़ती है। वह अर्थवत्ता ऐश्वर्य के होने में न बढ़ती है, न अभाव में घटती है। जीवन का वह मूल्य सही मूल्य है जो किसी भी मूल्य के आधार से न बना है, न किसी आधार के अभाव में मिटेगा। जीवन की अर्थपूर्णता . जीवन के अर्थपूर्ण होने का अर्थ है—बाह्य जीवन और अन्तर्जीवन दोनों ही परम मूल्यवान, परम अर्थवान बनें । जीवन में कोई अर्थ अगर नहीं रहा, रस सूख गया, तो क्या स्थिति होगी जीवन की? कभी सुख की, कभी दुःख की हवा चले तो जीवन कागज के टुकड़े की तरह, सूखे पत्ते की तरह इधर-उधर उड़ता जाएगा, जीवन कड़ा-कचरा होगा। जब तक मिठाई रखी हई है तब तक बक्से को संभाला जाएगा, मिठाई खत्म होते ही बक्सा तो फेंका ही जाएगा। अर्थ खोते ही या तो व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होगा, या मृत्यु की कामना करेगा। मृत्यु की प्रतीक्षा में जिया गया जीवन भी क्या जीवन है ? पता चले कि परिवार में कोई नहीं चाहता है, किसी के मन में प्रेम नहीं है; या किसी व्यक्ति ने किसी को बहुत प्रेम किया है और वह उससे नफरत करने लगे तो क्या होगी स्थिति? आत्महत्या के विचार आएंगे, व्यर्थ मालूम होगा जीवन । जीवन भी क्या है ? किसी के सहारे टिका है। किसी के लिए जीना है। सहारा मजबूत है, जीने की प्यास है। सहारा हिलते ही मृत्यु की कामना । न मृत्यु स्वाभाविक है, न जीवन निरालम्ब ! न जीवन सहज है और न मृत्यु ही। अपनी मस्ती, अपनी खुशी से जिया गया जीवन, जीवन है। जीने के लिए भी दूसरे की ओर ताकते रहो, मरने के लिए भी दूसरे की ओर देखो; अर्थशून्य जीवन की ये मांग-भरी निगाहें प्रार्थना नहीं हैं। जिनका जीवन ज्योतिर्मय है और मरण ज्योतिर्मय है, ऐसे महापुरुषों को अजन्मा कहा गया है। आचार्य भागेन्दु भी महावीर को अजन्मा कह रहे है। अजन्मा का अर्थ है-न जीवन की प्यास, न जिजीविषा, न मृत्यु की कामना। जो मृत्यु से भयभीत है, वह जीने के लिए व्याकुल है। जिसे जीवन से भय है, त्रास है उसकी मरने की इच्छा है। जिसको दोनों प्रकार के भय नहीं वह अजन्मा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001376
Book TitleMahavirashtak Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1997
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size3 MB
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