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________________ 'भगवान महावीर के महामनीषी गौतम आदि ग्यारह गणधरों का निर्वाण स्थल भी यही गिरिराज है । राजगृह के धनकुबेर धन्ना तथा शालिभद्र के ज्योतिर्मय समुज्ज्वल इतिहास से आप परिचित हैं । इन दोनों युवकों ने अपरिमित वैभव एवं ऐश्वर्य का त्याग करके इसी वैभारगिरि पर्वत पर महाप्रभु महावीर के चरणों में वीतराग - पथ पर कदम बढ़ाए थे । शालिभद्र का ऐश्वर्य कोई साधारण नहीं था । जैन - इतिहास साक्षी है, एक बार मगध सम्राट श्रेणिक शालिभद्र के भव्य प्रासाद में प्रविष्ट हुआ, तो सहसा असमंजस में पड़ गया कि वह अपने राज्य के एक नागरिक के प्रासाद में आया है या स्वर्ग में पहुँच गया है । ऐसे विपुल ऐश्वर्य एवं भोगों का त्याग धन्नाशालिभद्र ने जीवन की अन्तिम साँसों को गिनते समय, या यौवन के ढल जाने के बाद जर्जर बुढ़ापे में नहीं किया है, उन्होंने उसका त्याग खिलती तरुणाई में किया है । + इसी पर्वत पर साकार हुई है श्रेष्ठी पुत्र जम्बूकुमार की अद्भुत प्रेरणादायक कथा । स्नेहमूर्ति ममतालु माँ के मन को रखने के लिए आठ अप्सरोपमा कन्याओं के साथ विवाह करके, और दहेज में अपार सम्पत्ति लेकर घर आया है। पूरे मगध देश में, राजगृह में उसके विवाह और दहेज की चर्चा है । दहेज में मिले अपार धन-वैभव की बात सुनकर उस समय के दस्युराज प्रभव का मन ललचा उठा और वह अपने पाँच सौ खूँखार दस्यु साथियों को लेकर जम्बू के भव्य भवन में आ धमका । प्रभव वह दस्युराज है, जिसे मगध सम्राट की सेना वर्षों के प्रयत्न के बाद भी परास्त एवं समाप्त नहीं कर सकी । वही दस्युराज जम्बू के त्याग - वैराग्य की उच्चतम निष्ठा एवं ज्ञान - ज्योति से आलोकित जीवन से प्रभावित होकर स्वयं उसके चरणों में झुक गया और अपने आपको पूर्णत: समर्पित कर दिया । इतना ही नहीं, उसके पाँच सौ साथी भी दुष्कर्मों को छोड़कर जम्बू के चरणों में समर्पित हो गए । महाश्रमण भगवान महावीर की धर्म-देशना एवं गणधर सुधर्मा की वाणी का प्रकाश जम्बू के अन्तर् में जगमगा रहा था । उस ज्योति का पुण्य स्पर्श पाकर अन्धकार में भटकते दस्युराज प्रभव एवं उसके साथियों की अन्तर्ज्योति प्रज्वलित हो उठी। और जम्बू की आठ पत्नियों, उनके माता-पिता तथा अपने माता-पिता के जीवन में भी त्याग-भाव की, साधना की ज्योति प्रज्वलित हो गई । एक ज्योतिर्मय आत्मा में ऐसी दिव्य प्रज्वलित हुई कि उसने अपने सम्पर्क में समागत ५२७ व्यक्तियों के जीवन को ज्ञान ज्योति से प्रज्वलित कर दिया | (२२६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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