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________________ झोंपड़ियों में रहनेवाले सामान्य जन, जंगलों में विचरण कर रहे वनवासी जन भी, उनके चरणों में श्रद्धा-सुमन अर्पण करते रहे हैं । इस प्रकार तीनों लोक उनके चरण-कमलों में उपस्थित होते रहे हैं | वैदिक पुराणों के कथनानुसार जिस स्वर्ग को पाने के लिए बड़े-बड़े तपस्वी अपने आपको प्रज्वलित अग्नि में होम देते थे, गंगा की तेज-धारा में छलांग लगाकर अपने प्राणों का विसर्जन कर देते थे, हिमाद्रि आदि पवित्र पर्वतों के उत्तुंग शिखरों से कूदकर मौत के घाटियों में शरीर के खण्ड-खण्ड कर डालते थे । और ज्येष्ठ की भीषण गर्मी और तपती दुपहरी में महीनों तक सूर्य की प्रचण्ड अतापना लेते रहे थे तथा पंचाग्नि तप तपते रहे थे वही स्वर्ग इस पावन-धरा पर मंगलमय महाप्रभु के चरणों का स्पर्श कर अपने को धन्य मानता रहा है । अस्तु, सिद्धगिरि वैभार एवं उसकी उपत्यका में स्थित गुणशील उपवन की वह पवित्र पुण्य-भूमि है, महान् तीर्थ भूमि है, जिसकी यात्रा के लिए, जिसके दर्शन के लिए हजारों वर्षों से भक्तों का प्रवाह गंगा की धारा की तरह निरन्तर प्रवहमान रहा है, निष्ठा एवं श्रद्धा-भक्ति के साथ आता रहा है । भारत का कोई देश एवं प्रदेश भाग्येन ही ऐसा होगा, जहाँ से भक्त-गण श्रद्धा के प्रज्वलित दीप लिए यहाँ न पहुँचे हों | अनेक ऐसे भक्तराज भी यहाँ आये हैं जो अपने से दूर प्रदेशों एवं क्षेत्रों से यहाँ तक पैदल चलकर आये हैं । यह वैभारगिरि २३ तीर्थंकरों के समवसरणों की शोभा से मण्डित रहा है । इस पर्वतराज को अतीत में श्री ऋषभदेव आदि २३ तीर्थंकरों के चरण स्पर्श का सौभाग्य मिला है। यह पर्वत महाश्रमण महावीर की साधना और तप का पर्वत रहा है, और धर्मदेशना का पर्वत भी रहा है । ___ महाश्रमण भगवान् महावीर साधना-काल में इस देवतात्मा वैभारगिरि के विशाल शिखरों पर एवं उसकी सप्तपर्णी गुफा में ध्यान-साधना में, आत्मचिन्तन में स्थित रहे हैं । साधना काल का आठवा वर्षावास इसी पर्वत तथा गुहा में गुजरा है, उसके पश्चात् केवलज्ञानी अर्हन्त होने पर वैभारगिरि एवं विपुलाचल के शिखरों पर उनके समवसरण लगे हैं, उनकी धर्म-देशना सुनकर हजारों व्यक्तियों ने अन्तर्-दृष्टि प्राप्त की है, जीवन को ज्योतिर्मय बनाया है इस सिद्धगिरि पर्वत पर । इसलिए यह भूमि सिर्फ भूमि ही नहीं है, यह पर्वत मात्र पत्थरों का ढांचा ही नहीं है । इसके कण-कण में पवित्र इतिहास की स्वर्णिम रेखाएँ सन्निहित हैं । हजारों साधु-साध्वियों की दीक्षा इसी पर्वत पर हुई हैं । (२२५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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