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________________ वीणं उपदेसेण अंतोमुहुत्तं टुवेदि संखेज्जगुणमाउआदो ।" - पु० १६, पृ० ५७८ इसका अभिप्राय यह है कि आर्यमंशु के मतानुसार, लोकपूरणसमुद्घात के होने पर चार अघातिया कर्मों की स्थिति प्रायु के समान अन्तर्मुहूर्त प्रमाण हो जाती है । किन्तु आर्यनन्दी के मतानुसार, तीन अघातिया कर्मों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त होकर भी वह आयु से संख्यातगुणी होती है । जैसाकि जयधवला, भाग १ की प्रस्तावना ( पृ० ४३ ) में जयधवला का उद्धरण देते हुए स्पष्ट किया गया है, तदनुसार उपर्युक्त आर्यनन्दी का वह मत महावाचक नागहस्ती के समान ठहरता है । यह सब चिन्तनीय है । आनन्दी कब और कहाँ हुए हैं, उनके दीक्षा- गुरु और विद्यागुरु कौन थे, तथा उन्होंने किन ग्रन्थों की रचना की है; इत्यादि बातों के सम्बन्ध में कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं है । देवगण क्षमाश्रमण (वि०सं० ५२३ के आसपास) विरचित नन्दिसूत्र स्थविरावली में आर्यनन्दिल क्षपण का उल्लेख आर्यमंशु के शिष्य के रूप में किया गया है ।' क्या आर्यनन्दी और ग्रानन्दिल एक हो सकते हैं ? यह अन्वेषणीय है । २. आर्यमक्षु और नागहस्ती - ये दोनों आचार्य विशिष्ट श्रुत के धारक रहे हैं । कषायप्राभृत के उद्गम को प्रकट करते हुए जयधवला में कहा गया है कि श्रुत के उत्तरोत्तर क्षीण होने पर अंग-पूर्वी का एकदेश ही आचार्य परम्परा से आकर गुणधर आचार्य को प्राप्त हुआ । ये गुणधर भट्टारक पांचवें ज्ञानपूर्व के 'वस्तु' नामक दसवें अधिकार के अन्तर्गत बीस प्राभूतों में तीसरे कषायप्राभृत के पारंगत थे। उन्होंने प्रवचनवत्सलता के वशं ग्रन्थव्युच्छेद के भय से प्रेयोद्वेषप्राभृत ( कषायप्राभृत) का, जो ग्रन्थप्रमाण में सोलह हजार पदप्रमाण था, केवल एक सौ अस्सी गाथाओं में उपसंहार किया। ये ही सूत्रगाथाएँ आचार्य परम्परा से आकर आर्यमक्षु और नागहस्ती को प्राप्त हुईं। इन दोनों ही के पादमूल में गुणधर आचार्य के मुख कमल से निकली हुई उन एक सौ अस्सी गाथाओं के अर्थ को भली-भाँति सुनकर यतिवृषभ भट्टारक ने चूर्णिसूत्रों को रचा। लगभग इसी अभिप्राय को धवला में भी अनुभाग-संक्रम के प्रसंग में इस प्रकार व्यक्त किया गया है ....... एसो अत्थो विउलगिरिमत्थयत्थेण पच्चक्खीकयतिकाल गोयरछदव्वेण वड्ढमाणभडारएण गोदमथेरस्स कहिदो । पुणो सो वि अत्थो आइरियपरंपराए आगंतूण गुणहरभडारयं संपत्ती । पुणो तत्तो आइरियपरंपराए आगंतूण अज्जमंखु - नागहत्थिभडारयाणं मूलं पत्तो । पुणो तेहि दोहि विकमेण जदिव सहभडारस्स वक्खाणिदो । तेण वि अणुभागसंक मे सिस्साणुग्गहट्ठ १. यहाँ 'आर्यमक्षु' के स्थान में 'आर्यमंग' नाम है। यथा भगं करगं झरगं पभावगं णाण दंसणगुणाणं । वंदामि अज्जमंगं सुय - सायर - पारगं धीरं ॥ - न०सू०२८ णाणमिदंसणंमि य तव विणए णिच्चकालमुज्जुत्तं । अज्जादिलखमणं सिरसा वंदे पसण्णमणं ॥ - न० सू० २६ २. देखिए जयधवला १, पृ० ८७-८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only ग्रन्थका रोल्लेख / ६४७ www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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