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________________ चुण्णिसुत्तै लिहिदो । तेण जाणिज्जदि जहा सव्वट्ठकुव्वंकाणं विच्चालेसु घादट्ठाणाणि णस्थित्ति । -पु० १३, पृ० २३१-३२ जयधवला में भी उपर्युक्त अनुभागसंक्रम के ही प्रसंग में उसी प्रकार की शंका उठायी गयी है व उसके समाधान में धवला के समान ही उपर्युक्त अभिप्राय को प्रायः उन्हीं शब्दों में प्रकट किया गया है। विशेषता यह रही है कि धवला में जहाँ प्रसंगप्राप्त उस शंका के समाधान में वह कषायप्राभत के अनुभागसंक्रमसूत्र के व्याख्यान से जाना जाता है' यह कहकर उस प्रसंग को उदधत करते हुए उपर्युक्त अभिप्राय को प्रकट किया गया है वहाँ जयधवला में 'वह इस दिव्यध्वनिरूप किरण से जाना जाता है' यह कहकर उसी अभिप्राय को प्रकट किया गया है। . इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि गुणधर भट्टारक ने सोलह हजार पद प्रमाण प्रेयोद्वेषप्राभत (कषायप्राभूत) का जिन १८० गाथासूत्रों में उपसंहार किया था, गम्भीर व अपरिमित अर्थ से गभित उन गाथासूत्रों के मर्म को समझकर आर्य मंक्षु और नागहस्ती ने उनका व्याख्यान यतिवृषभाचार्य को किया था। इससे आर्यमंक्षु और नागहस्ती इन दोनों आचार्यों के महान् श्रुतधर होने में कुछ सन्देह नहीं रहता। विशिष्ट श्रुतधर होने के कारण ही धवला और जयधवला में उनका उल्लेख क्षमाश्रमण, क्षमण और महावाचक जैसी अपरिमित पाण्डित्य की सूचक उपाधियों के साथ किया गया है। कषायप्राभत की टीका 'जयधवला' को प्रारम्भ करते हुए वीरसेनाचार्य ने आर्यमक्ष और नागहस्ती के साथ वृत्ति-सूत्रकर्ता यतिवृषभ का भी स्मरण करके उनसे वर देने की प्रार्थना की है।" श्वेताम्बर सम्प्रदाय में उल्लेख _ जैसाकि पीछे 'आर्यनन्दी' के प्रसंग में कुछ संकेत किया जा चका है, इन दोनों लब्धप्रतिष्ठ आचार्यों को श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है। नन्दिसत्र की स्थविरावली में आचार्य आर्यमंगु (आर्यमंक्षु) को सूत्रार्थ के व्याख्याता, साधु के योग्य क्रियाकाण्ड के अनुष्ठाता, विशिष्ट ध्यान के ध्याता और ज्ञान-दर्शन के प्रभावक कहकर श्रुत-समुद्र के पारगामी कहा गया है व उनकी वन्दना की गयी है। १. वही, भाग ५, पृ० ३८७-८८ २. गुणहर-वयण-विणिग्गयगाहाणत्थोऽवहारियो सव्वो। जेणज्जमखुणा सो सणागहत्थी वरं देऊ ।। जो अज्जमखुसीसो अंतेवासी वि णागहत्थिस्स । सो वित्तिसुत्त कत्ता जइवसहो मे वरं देऊ ।।--मंगल के पश्चात् गा० ७.८ (यह स्मरणीय है कि यतिवृषभाचार्य ने स्वयं चूर्णिसूत्रों में या अन्यत्र भी कहीं इन दोनों आचार्यों का उल्लेख नहीं किया है।) ३. भणगं करगं झरगं पहावगं णाण-दसणगणाणं । वंदामि अज्जमंगुं सुय-सायरपारगं धीरं ।।-गा० २८ ६४८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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