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________________ धर्मामृत ( अनगार) अथ धर्मस्यानुषङ्गिकफलदानपुरस्सरं मुख्यफलसंपादनमुपदिशतिधर्माद् दृकफलमभ्युदेति करणैरुद्गीर्यमाणोऽनिशं, यत्प्रीणाति मनो वहन भवरसो यत्पुंस्यवस्थान्तरम् । स्याज्जन्मज्वरसंज्वरव्युपरमोपक्रम्य निस्सीम तत्, तादृक शर्म सुखाम्बुधिप्लवमयं सेवाफलं त्वस्य तत् ॥२५॥ दकूफलं-दृष्टि फलं धर्मविषयश्रद्धानजनितपुण्यसाध्यमित्यर्थः। यथा राजादेः सकाशादागन्तुसेवकस्य दृष्टिफलं सेवका(सेवा)फलं च द्वे स्त इत्युक्तिलेशः । करणैः-चक्षुरादिभिः श्रीकरणादिनियुक्तश्च । भवरस:संसारसारमिन्द्रादिपदं ग्राम-सुवर्ण-वस्तु-वाहनादि च । पुंसि-जीवे सेवकपुरुषे च । अवस्थान्तरंअशरीरत्वं सामन्तादिपदं च । संज्वरः-संतापः । प्लवः-अवगाहनम् । अस्य धर्मस्य । तदुक्तम् तथा उनके गुणोंके स्तवन आदिसे परम भक्ति करता है। इस भक्तिका उद्देश्य भी परमात्मपद की प्राप्ति ही होता है। तथा प्रयोजन होता है विषय कषायसे मनको रोकना । न तो उसके इस भव-सम्बन्धी भोगोंकी चाह होती है और न परभव-सम्बन्धी भोगोंकी चाह होती है। इस प्रकार निदान रहित परिणामसे नहीं चाहते हुए भी पुण्यकर्मका आस्रव होता है । उस पुण्यबन्धसे वह मरकर स्वर्गमें देव-इन्द्र आदि होता है और वहाँ भी स्वर्गकी सम्पदाको जीर्ण तृणके समान मानता है। वहाँसे वन्दनाके लिए विदेह क्षेत्रमें जाकर देखता है कि समवसरणमें वीतराग जिनदेव विराजमान हैं, भेद रूप या अभेद रूप रत्नत्रयके आराधक गणधर देव विराजमान हैं। उससे उसकी आस्था धर्ममें और भी दृढ़ हो जाती है। वह चतुर्थ गुणस्थानके योग्य अपनी अविरत अवस्थाको नहीं छोड़ते हुए भोगोंको भोगते हुए भी धर्मध्यान पूर्वक काल बिताकर स्वर्गसे च्युत होकर मनुष्य पर्यायमें जन्म लेता है किन्तु तीर्थंकर चक्रवर्ती आदि पद पाने पर भी मोह नहीं करता और जिनदीक्षा लेकर पुण्य और पाप दोनोंसे रहित निज परमात्माके ध्यानसे मोक्ष प्राप्त करता है। किन्तु मिथ्यादृष्टि तीव्र निदान पूर्वक बाँधे गये पुण्यसे भोगोंको प्राप्त करके रावणकी तरह नरकमें जाता है। इस तरह धर्म और पुण्य दोनों एकार्थसम्बन्धी हैं इसलिए पुण्यको उपचारसे धर्म कहा है। वस्तुतः पुण्य धर्म नहीं है। धर्म पुण्यसे बहुत ऊँची वस्तु है। जब तक पुण्य है संसारसे छुटकारा सम्भव नहीं है। पापकी तरह पुण्यसे भी मुक्ति मिलने पर ही संसारसे मुक्ति मिलती है ॥२४॥ आगे कहते हैं कि धर्म आनुषंगिक फलदानपूर्वक मुख्य फलको भी पूर्णतया जैसे राजाके समीप आनेवाले सेवकको दृष्टिफल और सेवाफलकी प्राप्ति होती है वैसे ही धर्मका सेवन करनेवालेको धर्मसे ये दो फल प्राप्त होते हैं। इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाला और दिन-रात रहनेवाला जो संसारका रस मनको प्रसन्न करता है वह दृष्टिफल है। तथा संसाररूप महाज्वरके विनाशसे उत्पन्न होनेवाला अमर्याद अनिर्वचनीय आगमप्रसिद्ध सुख रूपी अमृतके समुद्र में अवगाहन रूप जो पुरुषकी अवस्थान्तर है-संसार अवस्थासे विपरीत आत्मिक अवस्था है उसकी प्राप्ति सेवाफल है ॥२५॥ विशेषार्थ--राजा आदिके समीपमें आनेवाले सेवकको दो फलोंकी प्राप्ति होती है। प्रथम दर्शनमें राजा उसे ग्राम, सोना, वस्त्र आदि देता है। यह तो दृष्टिफल या राजदर्शन फल है और सेवा करने पर उसे सामन्त आदि बना देता है यह सेवाफल है। इसी तरह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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