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________________ प्रथम अध्याय दिट्ठा अणादिमिच्छादिट्टी जम्हा खणेण सिद्धा य । आराधया चरित्तस्स तेण आराधणासारे ॥२५॥-[ भ. आरा. १७ गा.] अथ त्रयोविंशत्या वृत्तरभ्युदयलक्षणं धर्मफलं वर्णयति, तत्रादौ तावत् समामतः ( सामान्यतः)- ३ वंशे विश्वमहिम्नि जन्म महिमा काम्यः समेषां शमो, मन्दाक्षं सुतपोजुषां श्रुतमृषिब्रह्मद्धिसंघर्षकृत् । त्यागः श्रीददुराधिदाननिरनुक्रोश: प्रतापो रिपु ___स्त्रीशृङ्गारगरस्तरङ्गितजगद्धर्माद्यशश्वाङ्गिनाम् ॥२६॥ विश्वमहिम्नि-जगद्व्यापिमाहात्म्य, समेषां-सर्वेषाम् । मन्दाक्ष-लज्जा । ब्रह्मद्धि:-ज्ञानातिशयः । संहर्षः ( संघर्षः )-स्पर्द्धा । श्रीदः--कुबेरः। निरनुक्रोशः-निर्दयः । गरः-कृत्रिमविषम् । ९ तरङ्गितं-तरङ्गवदाचरितं स्वल्पीभूतमित्यर्थः ॥२६॥ बुद्धयादिसामग्र्यपि फलदाने पुण्यमुखं प्रेक्षत एवेत्याह धीस्तीक्ष्णानुगुणः कालो व्यवसायः सुसाहसः । धैर्यमुद्यत्तथोत्साहः सर्वं पुण्यादृते वृथा ॥२७॥ धर्मका सेवन करनेवालेको भी दो फलोंकी प्राप्ति होती है। उसे मनको प्रसन्न करनेवाला सांसारिक सख मिलता है यह दष्टिफल है। दष्टिफलका मतलब है-धर्मविषयक श्रदानसे होनेवाले पुण्यका फल । सांसारिक सुख उसीका फल है । तथा धर्मका सेवन करते हुए निज शुद्धात्म तत्त्वकी भावनाके फलस्वरूप जो शुद्धात्म स्वरूपकी प्राप्ति होती है जो अनन्त सुखका समुद्र है वह सेवाफल है। इस तरह धर्मसे आनुषंगिक सांसारिक सुखपूर्वक मुख्य फल मोक्षकी प्राप्ति होता है ॥२५॥ __ आगे तेईस पद्योंके द्वारा धर्मके अभ्युदयरूप फलका वर्णन करते हैं। उनमें से प्रथम चौदह श्लोकोंके द्वारा सामान्य रूपसे उसे स्पष्ट करते हैं धर्मसे प्राणियोंका ऐसे वंशमें जन्म होता है जिसकी महिमा जगत्-व्यापी है अर्थात् जिसकी महिमा तीर्थकर आदि पदको प्राप्त कराने में समर्थ होती है। धर्मसे प्राणियोंको ऐसे तीर्थकर आदि पद प्राप्त होते हैं जिनकी चाह सब लोग करते हैं। अपराध करनेवालोंको दण्ड देनेकी सामर्थ्य होते हुए भी धर्म से ऐसी सहन शक्ति प्राप्त होती है जिसे देखकर अच्छे-अच्छे तपस्वियोंकी भी दृष्टि लज्जासे झुक जाती है। धर्मसे प्राणियोंको ऐसा श्रुतज्ञान प्राप्त होता है जो तपोबलके द्वारा बुद्धि आदि ऋद्धिको प्राप्त ऋषियोंके ज्ञानातिशयसे भी टक्कर लेता है। धर्मसे प्राणियोंको दान देनेकी ऐसी क्षमता प्राप्त होती है जो कुबेरके मनको भी निर्दयतापूर्वक व्यथित करती है। धर्मसे प्राणियोंको ऐसा प्रताप प्राप्त होता है जो शत्रुओंकी स्त्रियोंके शृङ्गारके लिए विषके समान है। तथा धर्मसे ऐसा यश प्राप्त होता है जिसमें जगत् एक लहरकी तरह प्रतीत होता है अर्थात् तीनों लोकोमें व्याप्त होता हुआ वह यश अलोकको भी व्याप्त करनेके लिए तत्पर होता है ॥२६॥ आगे कहते हैं कि बुद्धि आदि सामग्री भी अपना फल देनेमें पुण्यका ही मुख देखा करती है कुशके अग्रभागके समान तीक्ष्ण बुद्धि, कार्यके अनुकूल समय, कार्यके प्रति साहसपूर्ण अध्यवसाय, बढ़ता हुआ धैर्य और वृद्धिंगत उत्साह, ये सब पुण्यके बिना व्यर्थ हैं अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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