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________________ प्रथम अध्याय ३ कहते है शास्त्रे यथा धर्मादवाप्तविभवो धर्म प्रतिपाल्य भोगमनुभवतु। बीजादवाप्तधान्यः कृषीबलस्तस्य बीजमिव ।।-[ आत्मानु., २१ श्लो.] अपि च 'यस्मादभ्युदयः पुंसां निश्रेयसफलाश्रयः । वदन्ति विदिताम्नायास्तं धर्मं धर्मसूरयः ॥२४॥ . -[ सोम. उपा., २१ लो.] इन्हीं आचार्य कुन्दकुन्दने अपने भावपाहुडमें धर्म और पुण्यका भेद करते हुए कहा है 'जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा अपने धर्मोपदेशमें कहा गया है कि देवपूजा आदिके साथ व्रताचरण करना पुण्य है। और मोह और क्षोभसे रहित आत्माके परिणामको धर्म ऐसे धर्ममें अनुराग करनेसे जो पुण्यबन्ध होता है उसे भी उपचारसे धर्म कहते हैं। शास्त्रों में कहा है कि प्रयोजन और निमित्तमें उपचारकी प्रवृत्ति होती है। पुण्यको उपचारसे धर्म कहनेका प्रयोजन यह है कि लोकमें और शास्त्रमें पुण्यके लिए धर्म शब्दका व्यवहार किया जाता है । लोकमें शब्दकोशोंमें पुण्यको धर्म शब्दसे कहा है। शास्त्रोंमें भी पुण्यको धर्म शब्दसे कहा है । पहले लिख आये हैं कि आचार्य जिनसेनने जिससे सांसारिक अभ्युदयकी प्राप्ति होती है उसे भी धर्म कहा है । तथा उनके शिष्य आचार्य गुणभद्रने कहा है "जैसे किसान बीजसे धान्य प्राप्त करके उसे भोगता भी है और भविष्यके लिए कुछ बीज सुरक्षित भी रखता है उसी प्रकार धर्मसे सुख-सम्पत्तिको पाकर धर्मका पालन करते हुए भोगोंका अनुभवन कर।" ___ यहाँ भी पुण्यके लिए ही धर्म शब्दका व्यवहार किया गया है। इस तरह लोकमें शास्त्रोंमें पुण्यको भी धर्म कहा जाता है। यह प्रयोजन है उपचारका और निमित्त है धर्म और पुण्यका एकार्थसम्बन्धी होना । धर्मका प्रारम्भ सम्यग्दर्शनसे होता है। सात तत्त्वोंका यथार्थ श्रद्धान करके निज शुद्धात्मा ही उपादेय है इस प्रकारकी रुचिका नाम सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दृष्टि पुण्य और पाप दोनोंको ही हेय मानता है फिर भी पुण्यबन्धसे बचता नहीं है। हेय मानकर भी वह पुण्यबन्ध कैसे करता है इसे एक दृष्टान्तके द्वारा ब्रह्मदेवजीने द्रव्यसंग्रह [गा. ३८ ] की टीकामें इस प्रकार स्पष्ट किया है-जैसे कोई पुरुष किसी अन्य देशमें स्थित किसी सुन्दरीके पाससे आये हुए मनुष्योंका उस सुन्दरीकी प्राप्तिके लिए दान-सम्मान आदि करता है उसी तरह सम्यग्दृष्टि भी उपादेय रूपसे अपने शुद्ध आत्माकी ही भावना करता है, परन्तु चारित्र मोहके उदयसे उसमें असमर्थ होनेपर निर्दोष परमात्मस्वरूप अर्हन्तों और सिद्धोंकी तथा उनके आराधक आचार्य उपाध्याय और साधुओंकी दान-पूजा आदिसे १. 'प्यादिसु वयसहियं पुण्णं हि जिणेहि सासणे भणियं । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ॥' -भा. पा., गा. ८१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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