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________________ २८ धर्मामृत ( अनगार) केन न केनापि ब्रह्मादिना अनुभावतः प्रभावं कार्य वाऽऽधित्य ॥२३॥ ननु कथमेतन्मोक्षबन्धफलयोरेककारणत्वं न विरुध्यते निरुन्धति नवं पापमुपात्तं क्षपयत्यपि । धर्मेऽनुरागाद्यत्कर्म स धर्मोऽभ्युदयप्रदः ॥२४॥ क्षपयति एकदेशेन नाशयति सति धर्मे सम्यग्दर्शनादियोगपद्यप्रवृत्तकत्वलक्षणे शुद्धात्मपरिणामे । यत् कर्म सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्रलक्षणं पुण्यं स धर्मः । यथोक्तधर्मानुरागहेतुकोऽपि पुण्यबन्धो धर्म इत्युपचर्यते । निमित्तं चोपचारस्यैकार्थसंबन्धित्वम् । प्रयोजनं पुनर्लोकशास्त्रव्यवहारः लोके यथा-'स्याद्धर्ममस्त्रियां पुण्यश्रेयसी सुकृतं वृषः।' [ अमरकोश १।४।२४ ] इति कथन करनेकी प्रतिज्ञा करते हुए भी धर्म के इसी फलका कथन किया है यथा' _ 'मैं कर्मबन्धनको नष्ट करनेवाले समीचीन धर्मका कथन करता हूँ जो प्राणियोंको संसारके दुःखसे छुड़ाकर उत्तम सुखमें धरता है।' ___ इस मुख्यफलके साथ धर्मका आनुषंगिक फल भी है और वह है सांसारिक सुखोंकी प्राप्ति । जो मोक्षके लिए धर्माचरण करता है उसे उत्तम देवपद, राजपद आदि अनायास प्राप्त हो जाते हैं ॥२३॥ ___ इससे यह शंका होती है कि उत्तम देवपद आदि सांसारिक सुख तो पुण्यबन्धसे प्राप्त होता है और मोक्ष पुण्यबन्धके भी अभाव में होता है। तो एक ही धर्मरूप कारणसे मोक्ष और बन्ध कैसे सम्भव हो सकता है ? मोक्ष और बन्धका एक कारण होने में विरोध क्यों नहीं है। इसका उत्तर देते हैं नवीन पापबन्धको रोकनेवाले और पूर्वबद्ध पापकर्मका क्षय करनेवाले धर्ममें अनुराग होनेसे जो पुण्यकर्मका बन्ध होता है वह भी धर्म कहा जाता है और वह धर्म अभ्युदयकोस्वर्ग आदिकी सम्पदाको देता है ॥२४॥ विशेषार्थ-प्रश्नकर्ताका प्रश्न था कि धर्मसे मोक्ष और लौकिक अभ्युदय दोनों कैसे सम्भव है? मोक्ष कर्मवन्धके नाशसे मिलता है और लौकिक अभ्यदय पण्यबन्ध हैं। इसके उत्तर में ग्रन्थकार कहते हैं कि नवीन पापबन्धको रोकनेवाले और पुराने बँधे हुए पापकर्मका एकदेशसे नाश करनेवाले धर्म में विशेष प्रीति करनेसे जो सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्ररूप पुण्यकर्मका बन्ध होता है उसे भी उपचारसे धर्म कहा है और उस धर्मसे स्वर्गादि रूप लौकिक अभ्युदयकी प्राप्ति होती है । यथार्थमें तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमें एक साथ प्रवृत्त एकाग्रतारूप शुद्ध आत्मपरिणामका नाम धर्म है। आचार्य कुन्दकुन्दने प्रवचनसारके प्रारम्भमें धर्मका स्वरूप बतलाते हुए कहा है_ 'निश्चयसे चारित्र धर्म है और जो धर्म है उसे ही समभाव कहा है। तथा मोह और क्षोभसे रहित आत्माका परिणाम सम है।' १. 'देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम् । संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥'-रत्न. श्रा., २ श्लो.। २. 'चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥' -प्रव., गा.७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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