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________________ धर्मामृत (अनगार ) इत्येतेन प्रबन्धेनोक्तानि प्रतिपत्तव्यानि । अन्वर्थं - अभिधेयानुगतम् । तद्यथा - श्रीः अन्तरङ्गाऽनन्तज्ञानादिलक्षणा बहिरङ्गा च समवसरणाष्टमहाप्रातिहार्यादिस्वभावा लक्ष्मीरस्यातिशयेन हरिहराद्यसंभवित्वे - ३ नास्तीति श्रीमान् । स्वयं परोपदेशमन्तरेण मोक्षमार्गमवबुद्धधानुष्ठाय चानन्तचतुष्ट्यरूपतया भवतीति स्वयंभूः । तथा, वृषेण धर्मेण भातीति वृषभः । तथा, शं— सुखं भवत्यस्माद् भव्यानामिति शंभवः । एवमन्येषामपि यथाम्नायमन्वर्थता चिन्त्या । तथाहि 'ध्यानद्रुघण निर्भिन्नघनघातिमहातरुः । अनन्तभवसंतानजयादासीरनन्तजित् ॥ त्रैलोक्यनिर्जयावाप्तदुर्दर्पमतिदुर्जयम् । मृत्युराजं विजित्यासीज्जिनमृत्युंजयो भवान् ॥' [ महापु., २५।६९-७० ] ६ १२ १५ ५८२ १८ इत्यादि । व्यावहारिकत्वं च नामस्तवस्य (स्तुत्यैस्य ) परमात्मनो वाचामगोचरत्वात् । तथा चोक्तमार्षे - ' गोचरोऽपि गिरामासां त्वमवाग्गोचरो मतः । स्तोतुस्तथाप्यसंदिग्धं त्वत्तोऽभीष्टफलं भवेत् ||' [ महापु. २५१२१९ ] तथा 'संज्ञासंज्ञद्वयावस्थाव्यतिरिक्तामलात्मने । नमस्ते वीतसंज्ञाय नमः क्षायिकदृष्टये ॥' [ महावु. २५/९५ ] वीरान्तानां - वृषभादिवर्धमानान्तानां तीर्थंकराणां चतुविशतेः । सामान्यविवक्षया चायं नामस्तवश्चतुर्विंशतिरपि तीर्थकृतां श्रीमदादिसंज्ञावाच्यत्वाविशेषात् । विशेषापेक्षया तु वृषभादिचतुर्विंशतेः । पृथङ्नाम्नां निर्वचनमुच्चारणं वा नामस्तव: । यथा सर्वभक्तिभाक् 'थोस्सामि' इत्यादि स्तवः । 'चउवीसं तित्थयरे' २१ इत्यादिर्वा । 'ऋषभोऽजितनामा च' इत्यादिर्वा ॥ ३९ ॥ विशेषार्थ - महापुराण के पच्चीसवें पर्व में एक हजार आठ नामोंके द्वारा भगवान् ऋषभ देवकी जो स्तुति की गयी है वह नामस्तव है । यह स्तव अन्वर्थ है । जैसे भगवान्‌को श्रीमान् स्वयम्भू, वृषभ । सम्भव आदि कहा गया है । सो भगवान् तीर्थंकर ऋषभदेव के अन्तरंग ज्ञानादि रूप और बहिरंग समवसरण अष्ट महा प्रतिहार्यादि रूप श्री अर्थात् लक्ष्मी होती है। इसलिए उनका श्रीमान् नाम सार्थक है । तथा भगवान् परके उपदेशके विना स्वयं ही मोक्षमार्गको जानकर और उसका अनुष्ठान करके अनन्त चतुष्टय रूप होते हैं इसलिए उन्हें स्वयम्भू कहते हैं । वे वृष अर्थात् धर्मसे शोभित होते हैं इसलिए उन्हें वृषभ कहते हैं। उनसे भव्य rain सुख होता है इसलिए सम्भव कहते हैं । इसी तरह सभी नाम सार्थक हैं । इस प्रकारका नाम स्तव व्यावहारिक है क्योंकि स्तुतिके विषय परमात्मा तो वचनों के अगोचर हैं । जिनसेन स्वामीने कहा है - हे भगवन् ! इन नामोंके गोचर होते हुए भी आप वचनोंके अगोचर माने गये हैं । फिर भी स्तवन करनेवाला आपसे इच्छित फल पा लेता है। इसमें कोई सन्देह नहीं है । सामान्यकी विवक्षा होनेपर यह नामस्तव चौबीसों ही तीर्थंकरोंका है क्योंकि सभी तीर्थंकर 'श्रीमान् आदि नामोंके द्वारा कहे जा सकते हैं। विशेषकी अपेक्षा चौबीसों तीर्थंकरका भिन्न-भिन्न नामोंसे स्तवन करना भी नामस्तव है ||३९|| १. अर्थमनुगतम् भ. कु. च. । २. भ. कु. च. । Jain Education International For Private & Personal Use Only * www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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