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________________ अष्टम अध्याय ५८१ 'दव्वगुणखेत्तपज्जय भवाणुभावो य भावपरिणामो। जाण चउव्विहभेयं पज्जयलोगं समासेण ॥' [ मूलाचार, गा. ५५१ ] तत्र द्रव्यगुणा जीवस्य ज्ञानादयः, पुद्गलस्य स्पर्शादयो धर्माधर्माकाशकालानां च गतिस्थित्यवगाह- ३ हेतुत्ववर्तनादयः । क्षेत्रपर्याया रत्नप्रभा-जम्बूद्वीपर्जुविमानादयः । भवानुभाव आयुषो जघन्यमध्यमोत्कृष्टविकल्पः । भावपरिणामोऽसंख्येयलोकप्रमाणशुभाशुभजीवभावः कर्मादानपरित्यागसमर्थ इति । धर्मतीर्थकृतः-धर्मस्य वस्तुयाथात्म्यस्योत्तमक्षमादेर्वा तीर्थ शास्त्रं कृतवन्त उपदिष्टवन्तः । चतुर्विशतिस्तवः-अनेकतीर्थकरदेवगुण- ६ व्यावर्णनं चविंशतिशब्दस्यानेकोपलक्षणत्वात् ॥३७॥ अथ नामादिस्तवभेदो व्यवहारनिश्चयाभ्यां विभजन्नाह स्युमिस्थापना-द्रव्य-क्षेत्र-कालाश्रयाः स्तवाः। व्यवहारेण पञ्चादेको भावस्तवोऽहंताम् ॥३८॥ स्पष्टम् ॥३८॥ अथ नामस्तवस्वरूपमाह अष्टोत्तरसहस्रस्य नाम्नामन्वर्थमर्हताम् । वीरान्तानां निरुक्तं यत्सोऽत्र नामस्तवो मतः ॥३९॥ नाम्नां-श्रीमदादिसंज्ञानाम् । तानि चार्षे पञ्चविंशतितमे पर्वणि 'श्रीमान्स्वयंभूवृषभः शंभवः शम्भुरात्मभूः। स्वयंप्रभः प्रभुर्भोक्ता विश्वभूरपुनर्भवः ॥' इत्यादिना ___'शुभंयुः सुखसाद्भूतः पुण्यराशिरनामयः । धर्मपालो जगत्पालो धर्मसाम्राज्यनायकः ॥' [ महापु. २५।१००-२१७ ] संस्थान गुणसंस्थान है। पर्यायोंका दीर्घ, ह्रस्व, गोल, नारक, तिथंच आदि रूपसे संस्थान पर्यायसंस्थान है। ये सब चिह्नलोक हैं। उदयप्राप्त क्रोधादि कषायलोक हैं। नारक आदि योनियों में वर्तमान जीव भवलोक है। तीब्र राग-द्वेष आदि भावलोक है। पर्याय लोकके चार भेद हैं-जीवके ज्ञानादि, पुद्गलके स्पर्श आदि, धर्म, अधर्म, आकाश कालके गतिहेतुता, स्थितिहेतुता, अवगाहहेतुता और वर्तना आदि ये द्रव्योंके गुण, रत्नप्रभा पृथिवी, जम्बूद्वीप, ऋजु विमान आदि क्षेत्र पर्याय, आयुके जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट के असंख्यात लोक प्रमाण शभ अशभ भाव, जो कर्मोके ग्रहण और त्यागमें समर्थ होते हैं, ये संक्षेपमें पर्याय लोकके चार भेद हैं। इस प्रकार अर्हन्तोंका, केवलियोंका, जिनोंका, लोकके उद्योतकोंका, और धर्मतीर्थके कर्ता ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरोंका भक्तिपूर्वक गुणकीर्तन करना चतुर्विंशतिस्तव है ॥३७॥ आगे व्यवहार और निश्चयसे स्तवके भेद कहते हैं चौबीस तीर्थकरोंका स्तवन व्यवहारसे नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र और कालके आश्रयसे पाँच प्रकारका है। और परमार्थसे एक भावस्तव है ॥३८॥ नाम स्लपका स्वरूप कहते हैं भगवान ऋषभदेवसे लेकर भगवान् महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरोंका एक हजार आळ नामोंके द्वारा जो अर्थानुसारी निरुक्ति की जाती है उसे उक्त स्तवोंमें से नामस्तव कहते हैं ॥३९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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