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________________ ५८० धर्मामृत (अनगार) परिणामोऽन्यथाभावः। स चात्र व्यञ्जनपर्यायः। तद्वन्तौ जीवपुद्गलावेव तिर्यगादिगतिषु भ्रमणोपलम्भात, लोष्ठादिभावेन परिणमनप्रतीतेश्च । शेषाणि चत्वारि धर्माधर्मादिद्रव्याण्यपरिणामी नि व्यञ्जनपर्यायाभावात् । अर्थपर्यायापेक्षया पुनः षडपि परिणामीन्येव । जीवश्चेतनालक्षण आत्मैव ज्ञातत्वदृष्टत्वात् । पञ्चाऽन्येऽजीवाः । मूर्त पुद्गलद्रव्यं रूपादिमत्त्वात् । पञ्चान्ये त्वमूर्ताः । सप्रदेशा जीवादय पञ्च प्रदेशवत्त्वदर्शनात् । कालाणवः परमाणुश्चाप्रदेशाः प्रचयबंधाभावात् । एकरूपाणि धर्माधर्माकाशानि सर्वदा प्रदेशविघटनाभावात् । संसारिजीवपुद्गलकालास्त्वनेकरूपाः प्रदेशानां भेदोपलम्भात् । क्षेत्रमाकाशं सर्वेषामाधारत्वात् । पञ्चान्येऽक्षेत्राध्यवगाहनलक्षणाभावात् । क्रिया जीवपुद्गलयोर्गतिमत्त्वात । अन्ये त्वक्रियाः । नित्या धर्माधर्माकाशकाला व्यञ्जनपर्यायापेक्षया विनाशाभावात् । अन्यावनित्यो। कारणानि जीववर्जानि पञ्च जीवं प्रति उपकारकत्वात् । जीवस्त्वकारणं स्वतन्त्रत्वात् । कर्ता जीवः शुभाशुभफलभोक्तृत्वात् । पञ्चान्येऽकर्तारः। सर्वगतमाकाशम् । पश्चान्ये त्वसर्वगताः । इतरेष्वप्यपरिणामित्वादिधर्मेषु जीवादीनां प्रवेशो व्याख्यात एव । सप्रदेशमधस्तिर्यगूर्व लोकविभक्तमाकाशं क्षेत्रलोकः । द्रव्यगुणपर्यायाणां संस्थान चिह्नलोकः । क्रोधादय उदयमागताः कषायलोकः । १२ नारकादियोनिगताः सत्त्वा भवलोकः । तीव्ररागद्वेषादयो भावलोकः । द्रव्यगुणादिभेदाच्चतुर्धा पर्यायलोकः । उक्तं च लेना चाहिए। ऐसे परिणामी जीव और पुद्गल ही हैं क्योंकि जीवका तिथंच आदि गतिमें भ्रमण पाया जाता है और पुद्गलका लोष्ठ आदि रूपसे परिणमन देखा जाता है। शेष चार धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य अपरिणामी हैं क्योंकि उनमें व्यंजन पर्याय नहीं होती। किन्तु अर्थ पर्यायकी अपेक्षा छहों द्रव्य परिणामी हैं। चेतना लक्षणवाला आत्मा ही जीव है। क्योंकि वह ज्ञाता-द्रष्टा है। शेष पाँच द्रव्य अजीव हैं। मूर्त पुद्गल द्रव्य है क्योंकि उसमें रूप आदि पाये जाते हैं। शेष पाँच द्रव्य अमूर्तिक हैं। जीव. पदगल. धर्म. अधर्म और आकाश सप्रदेशी हैं, क्योंकि उनमें बहुप्रदेशीपना है। कालाणु और परमाणु अप्रदेशी हैं। धर्म, अधर्म, आकाश एकरूप हैं क्योंकि उनके प्रदेशोंका कभी भी विघटन नहीं होता। संसारी जीव, पुद्गल और काल अनेकरूप हैं क्योंकि उनके प्रदेशों में भेद देखा जाता है। क्षेत्र आकाश है क्योंकि सबका आधार है। शेप पाँच द्रव्य अक्षेत्र है क्योंकि उनमें अवगाहनरूप लक्षणका अभाव है। क्रिया जीव और पुद्गलमें है क्योंकि वे क्रियावान हैं। शेष द्रव्य निष्क्रिय हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और काल नित्य हैं क्योंकि व्यंजन पर्यायका अभाव होनेसे उसकी अपेक्षा उनका विनाश नहीं होता। शेष द्रव्य अनित्य हैं क्योंकि उनमें व्यंजन पर्याय होती हैं। पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश कारण हैं क्योंकि जीवका उपकार करते हैं। जीव कारण नहीं है क्योंकि वह स्वतन्त्र है । शुभ-अशुभ ' फलका भोक्ता होनेसे जीव कर्ता है। शेष द्रव्य शुभ-अशुभ फलका भोक्ता न होनेसे अको हैं। आकाश सर्वत्र पाया जाता है अतः सर्वगत है, शेष द्रव्य सर्वत्र न पाये जानेसे असर्वगत है। इस प्रकार परिणामी, अपरिणामी आदि रूपसे द्रव्यलोक होता है। अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोकसे विभक्त सप्रदेशी आकाश क्षेत्रलोक है। द्रव्य गुण पर्यायोंके संस्थानको चिह्नलोक कहते हैं। अर्थात् धर्म, अधर्म द्रव्योंका लोकाकार रूपसे संस्थान, आकाशका केवलज्ञानरूपसे संस्थान, लोकाकाशका घर, गुफा आदि रूपसे.संस्थान, पुद्गगल द्रव्यका लोकस्वरूपसे अथवा द्वीप, नदी, समुद्र, पर्वत, पृथिवी आदि रूपसे संस्थान तथा जीव द्रव्यका समचतुरस्र आदि रूपसे संस्थान द्रव्यसंस्थान है। गुणोंका द्रव्याकार रूपसे १. संस्थापनं भ. कु. च.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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