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________________ अष्टम अध्याय अथैवं सामायिकं व्याख्यायेदानों चतुर्विंशतिस्तवं नवभिः पद्यैर्व्याख्यातुकामः पूर्वं तल्लक्षणमाहकीर्तनमर्हस्केवलिजिनलोकोद्योतधर्मतीर्थकृताम् । भक्त्या वृषभादीनां यत्स चतुविशतिस्तवः षोढा ॥३७॥ कीर्तनं -- प्रशंसनम् | अर्हन्तः - अरेर्जन्मनश्च हन्तृत्वात् पूजाद्यर्हत्वाच्च । उक्तं च'अरिहंत वंदणणमंसाणि अरिहंति पूयसक्कारं । अरिहंति सिद्धिगमणं अरिहंता तेण उच्चति ॥' [ मूलाचार, ५६२ गा. ] केवलिनः -- सर्वद्रव्यपर्यायसाक्षात्कारिणः । जिना:- अनेकभवगहनव्यसनप्रापण हेतून् कर्मारातीन् जितवन्तः । लोकोद्योताः नामादिनवप्रकारलोकस्य भावेनोद्योतका ज्ञातार इत्यर्थः । नवधा लोको यथा— 'नामवर्ण दव्वं खेत्तं चिन्हं कसाय लोओ य । भवलोग भावलोगो पज्जयलोगो य णायव्वो ।' [ मूलाचार, गा. ५४१ ] ५७९ 'परिणामि जीव मुत्तं सपदेसं एय खेत्त किरिया य । णिच्चं कारण कत्ता सव्वगदिदर म्हि य पएसो ॥' [ मूलाचार, गा. ५४५ ] लिंगका धारी और ग्यारह अंगोंका पाठी अभव्य भी भावसे असंयमी होते हुए भी महात्रतोंका पालन करनेसे उपरिम ग्रैवेयकके विमान में उत्पन्न होता है ॥ ३६॥ अत्र यानि कान्यपि लोके शुभान्यशुभानि वा नामानि स नामलोकः । तथा यत् किंचिल्लोके कृत्रिम - कृत्रिमं वाऽस्ति स स्थापनालोकः । तथा षद्रव्यप्रपञ्चो द्रव्यलोकः । उक्तं च १२ इस प्रकार सामायिकका कथन करके अब नौ पद्योंसे चतुर्विंशतिस्तवका कथन करते हुए पहले उसका लक्षण कहते हैं अत्, केवली, जिन, लोकका उद्योत करनेवाले अर्थात् ज्ञाता तथा धर्मतीर्थ के प्रवर्तक ऋषभदेव आदि तीर्थंकरों का भक्तिपूर्वक स्तवन करनेको चतुर्विंशतिस्तव कहते हैं । उसके छह भेद हैं ||३७| Jain Education International विशेषार्थ — अरिहन्त और अर्हन्त ये दोनों प्रकारान्तरसे एक ही अवस्था के वाचक हैं। मोहनीय कर्म जीवका प्रबल शत्रु है क्योंकि समस्त दुःखोंकी प्राप्ति में निमित्त है । यद्यपि मोहनीय कर्मके नष्ट हो जानेपर भी कुछ काल तक शेष कर्मोंका सत्त्व रहता है किन्तु मोहनीयके नष्ट हो जानेपर शेष कर्म जन्ममरणरूपी संसारको उत्पन्न करने में असमर्थ हो जाते हैं । अतः उनका होना न होनेके बराबर है । इसलिए तथा आत्माके केवलज्ञान आदि समस्त आत्मगुणों के प्रकट होनेमें प्रबल रोधक होनेसे मोहनीय कर्म अरि है उसे घातनेसे अरिहन्त कहलाते हैं । तथा सातिशय पूजाके योग्य होनेसे उन्हें अर्हन्त कहते हैं । कहा है-यतः वे नमस्कार और वन्दना के योग्य हैं, पूजा और सत्कारके योग्य हैं, तथा मुक्तिमें जानेके योग्य हैं इसलिए उन्हें अर्हन्त कहते हैं । तथा सब द्रव्यों और सब पर्यायोंका प्रत्यक्ष ज्ञाता - द्रष्टा होनेसे केवली कहे जाते हैं । अनेक भर्वोके भयंकर कष्टोंके कारण कर्मरूपी शत्रुओंको जीतने से जिन कहे जाते हैं । नाम आदि के भेदसे नौ प्रकारके लोकके भावसे उद्योतक अर्थात् ज्ञाता होते हैं । लोकके नौ प्रकार इस तरह कहे हैं - ' नामलोक, स्थापनालोक, द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, चिह्नलोक, कषायलोक, भवलोक, भावलोक और पर्यायलोक ये नौ भेद लोकके हैं ।' लोक में जो भी शुभ या अशुभ नाम है वह नामलोक है । लोकमें जो भी अकृत्रिम अर्थात् स्वतः स्थापित और कृत्रिम ( स्थापित ) है वह स्थापनालोक है। छह द्रव्योंका समूह द्रव्य लोक है । कहा है- परिणाम अन्यथाभाव ( परिवर्तन ) को कहते हैं । यहाँ व्यंजन पर्याय For Private & Personal Use Only ३ ६ ९ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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