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________________ ५७८ धर्मामृत (अनगार) अथानन्यसामान्यं सामायिकमाहात्म्यमादर्शयंस्तत्प्रति सुधयः प्रयतेरन्निति शिक्षार्थमाह एकत्वेन चरन्निजात्मनि मनोवाक्कायकर्मच्युतेः कैश्चिद्विक्रियते न जातु यतिवद्यद्भागपि श्रावकः। येनार्हच्छ्रतलिङ्गवानुपरिमवेयकं नीयते ऽभव्योऽप्यद्भत्तवैभवेऽत्र न सजेत् सामायिके कः सुधीः ॥३६॥ एकत्वेनेत्यादि । आगमभावसामायिकाभ्यासपूर्वकं नोआगमभावसामायिकेन परिणममानस्य स्वविषयेभ्यो विनिवृत्ति (निवृत्य ) कायवाङ्मनःकर्मणामात्मना सह वर्तनादित्यर्थः। कैश्चित्-बारिभ्यन्तरैर्वा विकार कारणैः। यतिवत्-हिंसादिषु सर्वेष्वनासक्तचित्तोऽभ्यन्तरप्रत्याख्यानसंयमघातिकर्मोदयजनितमन्दाविरति९ परिणामे सत्यपि महाव्रत इत्युपचर्यत इति कृत्वा यतिना तुल्यं वर्तमानः । यथाह 'सामाइयम्हि दु कदे समणो इव सावओ हवदि जम्हा। एदेण कारणेण दु बहुसो सामाइयं कुज्जा ॥ [ मूलाचार., गा. ५३१] येनेत्यादि । उक्तं च चारित्रसारे-'एवं कृत्वाऽभव्यस्यापि निर्ग्रन्थलिङ्गधारिण एकादशाङ्गाध्यायिनो महाव्रतपरिपालनादसंयमभावस्यापि उपरिमवेयकविमानवासिता उपपन्ना भवतीति ॥३६॥ सामायिकका असाधारण माहात्म्य बतलाकर बुद्धिमानोंको उसके लिए प्रयत्न करनेकी शिक्षा देते हैं संयमी मुनिकी तो बात ही क्या, जिस सामायिकका पालक देश संयमी श्रावक भी मन-वचन-कायके व्यापारसे निवृत्त होकर अपनी आत्मामें कर्तृत्व-भोक्तृत्व भावसे रहित एक ज्ञायक भावसे प्रवृत्त होता हुआ मुनिकी तरह किन्हीं भी अभ्यन्तर या बाह्य विकारके कारणोंसे कभी भी विकारको प्राप्त नहीं होता। तथा जिस सामायिकके प्रभावसे एकादशांगका पाठी और द्रव्य निर्ग्रन्थ जिनलिंगका धारी अभव्य भी आठ प्रैवेयक विमानोंसे ऊपर और नौ अनुदिश विमानोंके नीचे स्थित ग्रैवेयकमें जन्म लेता है, उस आश्चर्यजनक प्रभावशाली सामायिकमें कौन विवेकी ज्ञानी अपनेको न लगाना चाहेगा ॥३६॥ विशेषार्थ-यहाँ देशविरत श्रावकको सर्वविरत मुनिके तुल्य कहा है क्योंकि श्रावकका चित्त भी हिंसा आदि सब पापोंमें अनासक्त रहता है तथा यद्यपि उसके संयमको घातनेवाली प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय रहता है किन्तु वह मन्द उदय होता है इसलिए उसके उपचारसे महाव्रत भी मान लिया जाता है । आचार्य समन्तभद्रने कहा है-प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय मन्द होनेसे चारित्रमोहरूप परिणाम अतिमन्द हो जाते हैं कि उनका अस्तित्व जानना भी कठिन होता है। उसीसे महाव्रतकी कल्पना की जाती है। अतः सामा: यिक श्रावकके लिए भी आवश्यक है। वह पहले आगमभाव सामायिकका अभ्यास करता है अर्थात् सामायिक विषयक शास्त्रोंका अभ्यास करता है। फिर नोआगमभाव सामायिकमें लगता है अर्थात् सामायिक करता है। मूलाचारमें कहा भी है-'सामायिक करनेपर यतः श्रावक मुनिके तुल्य होता है अतः बार-बार सामायिक करना चाहिए।' सामायिकके प्रभावसे ही जिनागमका पाठी और जिनलिंगका धारी अभव्य भी नवम ग्रैवेयक तक मरकर जाता है-चारित्रसार (पृ. ११) में कहा है-ऐसा होनेसे निर्ग्रन्थ १. 'प्रत्याख्यानतनुत्वात् मन्दतराश्चरणमोहपरिणामाः । सत्त्वेन दुरवधारा महावताय प्रकल्प्यन्ते ॥'-रत्नकरण्ड था.७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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