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________________ धर्मामृत ( अनगार) अथ मुमुक्षोः षडावश्यककर्मनिर्माणसमर्थनार्थ चतुर्दशभिः पद्यैः स्थलशुद्धि विधत्ते । तत्र तावदात्मदेहान्तरज्ञानेन वैराग्येण चाभिभूततत्सामर्थ्यो विषयोपभोगो न कर्मबन्धाय प्रभवतीति दृष्टान्तावष्टम्भेनाचा मन्त्रेणेव विषं मृत्य्वै मध्वरत्या मदाय वा। न बन्धाय हतं ज्ञप्त्या न विरक्त्यार्थसेवनम् ॥२॥ अरत्या-अप्रीत्या । मधु त्येव (?) वा इवार्थे । अर्थसेवनं-विषयोपभोगः । उक्तं च 'जह विसमुपभुजंता विज्जापुरिसा दु ण मरणमुवेंति । पोग्गलकम्मस्सुदयं तह भुंजदि णेव बज्भए णाणी ।। जह मज्जं पिवमाणो अरईभावेण मज्जदि ण पुरिसो। दव्वुवभोगे अरदो णाणी वि ण बज्झदि तहेव ॥' [ समय प्राभृत, गा. १९५-१९६ ] अपि च 'धात्रीबालाऽसतीनाथ पद्मिनीदलवारिवत् । दग्धरज्जुवदाभासाद् भुञ्जन् राज्यं न पापभाक् ॥' [ मुमुक्षुओंके छह आवश्यक कर्मों के निर्माणके समर्थनके लिए चौदह पद्योंके द्वारा स्थलशुद्धि करते हुए, सर्वप्रथम दृष्टान्तके द्वारा यह बतलाते हैं कि शरीर और आत्माके भेदज्ञानसे तथा वैराग्यसे विषयोपभोगकी शक्ति दब जाती है अतः उससे कर्मबन्ध नहीं होता के द्वारा जिसकी मारनेकी शक्ति नष्ट कर दी गयी है वह विष मृत्युका कारण नहीं होता । अथवा जैसे मद्यविषयक अरुचिके साथ पिया गया मद्य मदकारक नहीं होता, उसी प्रकार शरीर और आत्माके भेदज्ञानके द्वारा अथवा वैराग्यके द्वारा विषयभोगकी कर्मबन्धनकी शक्तिके कुण्ठित हो जानेपर विषयभोग करनेपर भी कर्मबन्ध नहीं होता ॥२॥ विशेषार्थ-सम्यग्दृष्टिका वैषयिक सुखमें रागभाव नहीं होता। इसका कारण है सम्यग्दर्शन। यह सम्यग्दर्शन आत्माकी ऐसी परिणति है कि सम्यग्दृष्टिकी सामान्य मनष्योंकी तरह क्रिया मात्रमें अभिलाषा नहीं होती। जैसे प्रत्येक प्राणीका अपने अनुभूत रोगमें उपेक्षाभाव होता है कोई भी उसे पसन्द नहीं करता। उसी तरह सम्यग्दृष्टिका सब प्रकारके भोगोंमें उपेक्षाभाव होता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि जब किसीको यह ज्ञान हो जाता है कि यह मेरा नहीं है, पर है या पराया है तब वह परवस्तुकी अभिलाषा नहीं करता । अभिलाषाके बिना भी पराधीनतावश यदि कोई अनुचित काम करना पड़ता है तो वह उस क्रियाका कर्ता नहीं होता। उसी तरह सम्यग्दृष्टि भी पूर्व संचित कर्मोंके उदयसे प्राप्त हुए इन्द्रियभोगोंको भोगता है तो भी तत्सम्बन्धी रागभावका अभाव होनेसे वह उसका भोक्ता नहीं होता। किन्तु मिथ्यादष्टि विषयोंका सेवन नहीं करते हुए भी रागभावके होनेसे विषयोंका सेवन करनेवाला ही कहा जाता है। जैसे कोई व्यापारी स्वयं कार्य न करके नौकरके द्वारा व्यापार कराता है। इस तरह वह स्वयं कार्य न करते हुए भी उसका स्वामी होने के कारण व्यापार सम्बन्धी हानि-लाभका जिम्मेदार होता है। किन्तु नौकर व्यापार करते हुए भी उसके हानि-लाभका मालिक नहीं होता। यही स्थिति मिध्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिकी है। मिथ्यादृष्टि मालिक है और सम्यग्दृष्टि नौकरके रूपमें कार्य करता है, हानिसे उसे खेद नहीं होता और लाभसे प्रसन्नता नहीं होती। यह स्वामित्वका अभाव भेदविज्ञान होनेपर ही होता है। तथा इस ज्ञानके साथ ही विषयोंकी ओरसे अरुचि हो जाती है उसे ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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