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________________ अष्टम अध्याय ५५३ तथा 'बन्धो जन्मनि येन येन निविडं निष्पादितो वस्तुना बाह्यार्थंकरतेः पुरा परिणतप्रज्ञात्मनः साम्प्रतम्। तत्तत्तन्निधनाय साधनमभूद्वैराग्यकाष्ठास्पृशो दुर्बोधं हि तदन्यदेव विदुषामप्राकृतं कौशलम् ॥' [ ] ॥२॥ अथ ज्ञानिनो विषयोपभोगः स्वरूपेण सन्नपि विशिष्टफलाभावान्नास्तीति दृष्टान्तेन दृढयति ज्ञो भुञ्जानोऽपि नो भुङ्क्ते विषयांस्तत्फलात्ययात् । यथा परप्रकरणे नृत्यन्नपि न नृत्यति ॥३॥ ज्ञः-आत्मज्ञानोपयुक्तः पुमान् । भुञ्जानः-चेष्टामात्रेणानुभवन् । नो भुङ्क्ते-उपयोगवैमुख्यान्नानु- १ भवति । तत्फलं-बुद्धिपूर्वकरागादिजनितकर्मबन्धोऽद्याहमेव लोके श्लाध्यतमो यस्येदृक् कल्याणप्रवृत्तिरित्याभिमानिकरसानुविद्धप्रीत्यनुबन्धश्च । परप्रकरणे-विवाहादिपर्वणि ।। विरागभाव कहते हैं। ऊपर ग्रन्थकारने जो दो दृष्टान्त दिये हैं। वे ही दृष्टान्त आचार्य कुन्द-कुन्दने समयसारमें दिये हैं। कहा है जैसे कोई वैद्य विष खाकर भी सफल विद्याके द्वारा विषकी मारण शक्ति नष्ट कर देनेसे मरता नहीं है, वैसे ही अज्ञानियोंके रागादिका सद्भाव होनेसे जो पुद्गल कर्मका उदय बन्धका कारण होता है, उसीको भोगता हुआ भी ज्ञानी ज्ञान की अव्यर्थ शक्तिके द्वारा रागादि भावोंका अभाव होनेसे कर्मके उदयकी नवीन बन्ध कारक शक्तिको रोक देता है । इसलिए उसके नवीन कर्मबन्ध नहीं होता। तथा जैसे कोई पुरुष मदिराके प्रति तीव्र अरुचि होनेसे मदिरापान करके भी मतवाला नहीं होता, उसी तरह ज्ञानी भी रागादि भावोंका अभाव होनेसे सब द्रव्योंके भोगमें तीव्र विराग भावके कारण विषयोंको भोगता हुआ भी कमोंसे नहीं बँधता। यह शंका हो सकती है कि जब सम्यग्दृष्टि जीव विषयोंको भोगता है और जो उसे प्रिय होता है उसे वह चाहता भी है तब कैसे उसे विषयोंकी अभिलाषा नहीं है ? यह शंका उचित है इसका कारण है उसका अभी जघन्य पदमें रहना, और इस जघन्य पदका कारण है चारित्र मोहनीय कर्मका उदय । चारित्र मोहके उदयसे जीव इन्द्रियोंके विषयों में रत होता है और यदि वह न हो तो वह शुद्ध वीतराग होता है। किन्तु दर्शनमोहका उदय न होनेसे यद्यपि वह भोगोंकी इच्छा नहीं करता तथापि चारित्रमोहका उदय होनेसे भोगकी क्रिया जबरदस्ती होती है। परन्तु केवल क्रियाको देखकर उसकी विरागतामें सन्देह करना उचित नहीं है। क्योंकि जैसे न चाहते हुए भी संसारके जीवोंको गरीबी आदिका कष्ट भोगना पड़ता है, वैसे ही कर्मसे पीड़ित ज्ञानीको भी न चाहते हुए भी भोग भोगना पड़ता है। अतः सम्यग्दृष्टी जीव भोगोंका सेवन करते हुए भी उनका सेवक नहीं है क्योंकि बिना इच्छाके किया गया कर्म विरागीके रागका कारण नहीं होता। (पञ्चाध्यायी, उत्तरार्द्ध २५१ आदि श्लोक ) ॥२॥ ज्ञानीका विषयोपभोग स्वरूपसे सत् होते हुए भी विशिष्ट फलका अभाव होनेसे नहीं है, यह दृष्टान्त द्वारा दृढ़ करते हैं __ जैसे दूसरेके विवाह आदि उत्सवमें बलात् नाचनेके लिए पकड़ लिया गया व्यक्ति नाचते हुए भी नहीं नाचता, वैसे ही ज्ञानी विषयोंको भोगता हुआ भी नहीं भोगता; क्योंकि विषयोपभोगके फलसे वह रहित है ॥३॥ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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