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________________ अष्टम अध्याय अथ तपसो विनयभावेनोपक्षिप्तं षडावश्यकानुष्ठानमासूत्रयति अयमहमनुभूतिरितिस्ववित्तिविषजत्तथेतिमतिरुचिते। स्वात्मनि निःशङ्कमवस्थातुमथावश्यकं चरेत् षोढा ॥१॥ अयं-स्वसंवेदनप्रत्यक्षेणालम्ब्यमानः । विषजन्ती-संगच्छमाना । मतिः-श्रद्धा। निःशङ्कं- . लक्षणया निश्चलं निश्चितसुखं वा । अथ मङ्गले अधिकारे वा ॥१॥ अब सातवें अध्यायमें (श्लो. ७५) तपके विनय रूपसे संकेतित छह आवश्यकोंके अनुष्ठानका कथन करते हैं जो स्वसंवेदन प्रत्यक्षका आधार है और 'मैं' इस उल्लेखसे जिसका अनुभव होता है कि 'यह मैं अनुभूति रूप हूँ' इस प्रकारका जो आत्मसंवेदन (स्वसंवेदन) है उसके साथ एकमेकरूपसे रिली-मिली 'तथा' इस प्रकारकी मति है। अर्थात् जिस शुद्ध ज्ञान घनरूपसे मेरा आत्मा अवस्थित है उसी रूपसे मैं उसका अनुभव करता हूँ। इस प्रकारकी मति अर्थात् श्रद्धाको 'तथा' इति मति जानना। उक्त प्रकारके स्वसंवेदनसे रिली-मिली इस श्रद्धासे युक्त आत्मामें निःशंक अवस्थानके लिए साधुको छह आवश्यक करना चाहिए। निःशंक शब्दके दो अर्थ हैं-जहाँ 'नि' अर्थात् निश्चित 'शं' अर्थात् सुख है वह निःशंक है। अथवा शंकासे सन्देहसे जो रहित है वह निःशंक है। लक्षणासे इसका अर्थ निश्चल होता है । अतः आत्म स्वरूपमें निश्चल अवस्थानके लिए साधुको छह आवश्यक करना चाहिए । 'अथ' शब्द मंगलवाची और अधिकारवाची है। यह बतलाया है कि यहाँसे आवश्यकका अधिकार है ॥१॥ विशेषार्थ-छह आवश्यक पालनेका एकमात्र उद्देश्य है आत्मामें निश्चल स्थिति । चारित्र मात्रका यही उद्देश्य है और चारित्रका लक्षण भी आत्मस्थिति ही है। किन्तु आत्मामें स्थिर होने के लिए सर्वप्रथम उसकी अनुभूतिमूलक श्रद्धा तो होनी चाहिए। उसीको ऊपर कहा है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयंको 'मैं' कहता है । इस मैं का आधार न शरीर है न इन्द्रियाँ हैं। मुर्देका शरीर और उसमें इन्द्रियोंके होते हुए भी वह मैं नहीं कह सकता। अतः मैं का आधार वह वस्तु है जो मुर्द में-से निकल गयी है। वही आत्मा है । स्वसंवेदन भी उसीको होता है । 'स्व'का अथात अपना जो ज्ञान वह स्वसवेदन है। तो इस स्वसवेदन प्रत्यक्षका अवलम्ब आत्मा है। 'मैं' से हम उसीका अनुभवन करते हैं। इसके साथ ही इस आत्मसंवेदनके साथमें यह श्रद्धा भी एकमेक हुई रहती है कि आत्माका जैसा शुद्ध ज्ञान घनस्वरूप बतलाया है उसी प्रकारसे मैं अनुभव करता हूँ। इस तरह आत्माके द्वारा आत्मामें श्रद्धा और ज्ञानका ऐसा एकपना रहता है कि उसमें भेद करना शक्य नहीं होता। ऐसी श्रद्धा और ज्ञानसे सम्पन्न आत्मामें स्थिर होनेके लिए ही मुनि छह आवश्यक कर्म करता है ।।१।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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