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________________ ३ ६ ९ ५५० धर्मामृत (अनगार ) अथ तपस उद्योतनाराधनापञ्चकं प्रपञ्चयंस्तत्फलमाह - विषयाभिलाषमभितो हिंसामपास्यैस्तप स्यार्णो विशदे तदेकपरतां विभ्रत्तदेवोद्गतिम् । नीत्वा तत्प्रणिधानजातपरमानन्दो विमुञ्चत्यसून् स स्नात्वाऽमरमश लहरीष्वीतें परां निर्वृतिम् || १०४ ॥ अपास्यन् — उद्योतनोक्तिरियम् । आगूणः - उद्यतः । उद्यवनोपदेशोऽयम् । विभ्रत् — निर्वहणभणितिरियम् । नीत्वा - साधनाभिधानमिदम् । विमुञ्चति - विधिना त्यजति । निस्तरण निरूपणेयम् । लहरी - परम्परेति भद्रम् ॥१०४॥ इत्याशावरदृब्धायां धर्मामृत पञ्जिकायां ज्ञानदीपिकापरसंज्ञायां सप्तमोऽध्यायः । अत्राध्याये ग्रन्थप्रमाणं षष्ठयधिकानि चत्वारिशतानि अंकतः ४६० । अवीचार, सूक्ष्मक्रिया अपतिपाति और व्युपरत क्रिया निवर्ति । मुमुक्षुको आर्त और रौद्रको छोड़कर, धर्मध्यान और शुक्लध्यानका ही प्रीतिपूर्वक आलम्बन लेना चाहिए। इन्हीं से सुगतिकी प्राप्ति होती है। जो मुमुक्षु समीचीन ध्यान न करके शुभ कार्यों में ही लगे रहते हैं, उनकी ओर उत्कण्ठा रखनेवाली भी मुक्तिरूपी वधू चिरकाल तक भी उन्हें प्राप्त नहीं होती, क्योंकि वह तो एक मात्र आत्मध्यानसे ही प्राप्त होती है । पंचास्तिकाय में कहा भी है- जो जीव वास्तव में मोक्ष के लिए उद्यत होते हुए तथा संयम और तपके अचिन्त्य भारको उठाते हुए भी परमवैराग्यकी भूमिका पर आरोहण करनेमें असमर्थ होता हुआ नौ पदार्थों और अरहन्त आदि में रुचिरूप परसमय प्रवृत्तिको त्यागने में असमर्थ होता है उसे साक्षात् मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती ||१०३ || आगे तपके विषय में उद्योतन आदि पाँच आराधनाओंका कथन करते हुए उसका फल कहते हैं इन्द्रियोंके विषयकी अभिलाषा छोड़कर तथा द्रव्यहिंसा और भावहिंसाका भी सर्वथा परित्याग करके जो साधु निर्मल तपमें उद्यत होकर उसीमें लीन होता हुआ उस तपकी चरम अवस्था ध्यानको प्राप्त होता है और उसी निर्मल तपमें लीन होनेसे उत्पन्न हुए परमानन्द में रमण करता हुआ प्राणों को छोड़ता है वह साधु स्वर्गलोक और मनुष्यलोकके सुखोंको भोगकर अर्थात् जीवन्मुक्तिको प्राप्त करके परम मुक्तिको प्राप्त करता है ।। १०४|| Jain Education International विशेषार्थ - तपके विषय में भी पाँच आराधनाएँ कही हैं— उद्योतन, उद्यवन, निर्वहण, साधन और निस्तरण । विषयोंकी अभिलाषाको छोड़कर हिंसाको त्यागना उद्योतनको बतलाता है । निर्मल तपमें उद्यत होना, यह उद्यवनका कथन है । उसीमें लीन होना, यह निर्वहणका सूचक है । उसको उन्नत करते हुए ध्यान तक पहुँचना, साधन है । उससे उत्पन्न हुए आनन्द में मग्न होकर प्राणत्याग यह निस्तरणको कहता है ॥ १०४ ॥ इसप्रकार आशाधर रचित धर्मामृतमें अनगार धर्मामृतकी मव्यकुमुद चन्द्रिका नामक संस्कृत टीका तथा ज्ञानदीपिका नामक पंजिकाको अनुगामिनी हिन्दी टीका में तपस्याराधनाविधान नामक सप्तम अध्याय पूर्ण हुआ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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