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________________ सप्तम अध्याय ५४९ आतं रौद्रमिति द्वयं कुगतिदं त्यक्त्वा चतुर्धा पृथग् धम्यं शुक्ल मिति द्वयं सुगतिदं ध्यानं जुषस्वानिशम् । नो चेत् क्लेशनृशंसकोर्णजनुरावर्ते भवाब्धौ भ्रमन् ___ साधो सिद्धिवर्धू विधास्यसि मुधोत्कण्ठामकुण्ठश्चिरम् ॥१०३॥ कुगतिदं-तिर्यग्नारककुदेवकुमानुषत्वप्रदम् । चतुर्धा-आज्ञापायविपाक(-संस्थान-)विचयविकल्पाच्चतुर्विधं धर्म्यम् । पृथक्त्ववितर्कवीचारमेकत्ववितर्कवीचारं सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति-व्युपरतक्रियानिति चेति शुक्लमपि चतुर्विधम् । एवमातरौद्रयोरपि चातुर्विध्यं प्रत्येकमागमादधिगन्तव्यम् । सुगतिदं-सुदेवत्वसुमानुषत्वमुक्तिप्रदम् । जुषस्व । नृशंसा:-क्रूरकर्मकृतो मकरादिजलचराः । अकुण्ठः-श्रेयोऽर्थक्रियासूद्यतः । तथा चोक्तम् 'सपयत्थं तित्थयरमधिगदबुद्धिस्स सुत्तरोईस्स। दूरतरं णिव्वाणं संजमतवसंपजुत्तस्स ॥' [ पञ्चास्ति., गा. १७० ] ॥१०३॥ चार प्रकारका आर्तध्यान और चार प्रकारका रौद्रध्यान, ये दोनों ही ध्यान कुगतिमें ले जानेवाले हैं इसलिए इन्हें छोड़, और चार प्रकारका धर्मध्यान और चार प्रकारका शुक्लध्यान ये दोनों सुगतिके दाता हैं अतः सदा इनकी प्रीतिपूर्वक आराधना करो। यदि ऐसा नहीं करोगे तो हे साधु ! कल्याणकारी क्रियाओंमें तत्पर होते हुए क्लेशरूपी क्रूर जलचरोंसे भरे हुए जन्मरूपी भँवरोंसे व्याप्त संसारसमुद्रमें चिरकाल तक भ्रमण करते हुए उत्कण्ठित भी मुक्तिरूपी वधूकी उत्कण्ठाको विफल कर दोगे ॥१०३॥ . विशेषार्थ-ध्यानके चार भेद हैं-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान । इनमें से प्रारम्भके दो ध्यान नारक, तिथंच, कुदेव और कुमनुष्योंमें उत्पन्न कराते हैं और शेष दो ध्यान सुदेव, सुमनुष्य और मुक्ति प्रदान करते हैं। प्रत्येक ध्यानके चार भेद हैं। अनिष्टका संयोग होनेपर उससे छुटकारा पानेके लिए जो रात-दिन चिन्तन किया जाता है वह अनिष्टसंयोगज नामक प्रथम आर्तध्यान है। इष्टका वियोग होनेपर उसकी पुनः प्राप्तिके लिए जो सतत चिन्तन किया जाता है वह इष्टवियोगज नामक दसरा आर्तध्यान है। कोई पीड़ा होनेपर उसको दूर करने के लिए जो सतत चिन्तन होता है वह वेदना नामक तीसरा आर्तध्यान है। और आगामी भोगोंकी प्राप्तिके लिए जो चिन्तन किया जाता है वह निदान नामक चतुर्थ आर्तध्यान है। इसी तरह हिंसा, झूठ, चोरी और परिग्रह के संरक्षणके चिन्तनमें जो आनन्दानुभूति होती है वह हिंसानन्दी, असत्यानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी नामक चार रौद्रध्यान हैं। धर्मध्यानके भी चार भेद हैं, आज्ञा विचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थान विचय । अच्छे उपदेष्टाके न होनेसे, अपनी बुद्धि मन्द होनेसे और पर्थके सूक्ष्म होनेसे जब यक्ति और उदाहरणकी गति न हो तो ऐसी अवस्थामें सर्वज्ञ देवके द्वारा कहे गये आगमको प्रमाण मानकर गहन पदार्थका श्रद्धान करना कि यह ऐसा ही है आज्ञाविचय है। अथवा स्वयं तत्त्वोंका जानकार होते हुए भी दूसरोंको उन तत्त्वोंको समझानेके लिए युक्ति दृष्टान्त आदिका विचार करते रहना, जिससे दूसरोंको ठीक-ठीक समझाया जा सके आज्ञाविचय है, क्योंकि उसका उद्देश्य संसारमें जिनेन्द्र देवकी आज्ञाका प्रचार करना है। जो लोग मोक्षके अभिलाषी होते हुए भी कुमार्गमें पड़े हुए हैं उनका विचार करते रहना कि वे कैसे मिथ्यात्वसे छूटें, इसे अपायविचय कहते हैं। कर्मके फलका विचार करना विपाक विचय है । लोकके आकारका तथा उसकी दशाका विचार करना संस्थान विचय है । इसी तरह शुक्लध्यानके भी चार भेद हैं-पृथक्त्ववितर्क वीचार, एकत्व वितर्क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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