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________________ सप्तम अध्याय ५२५ यद्विनयत्यपनयति च कर्मासत्तं निराहुरिह विनयम् । शिक्षायाः फलमखिलक्षेमफलश्चेत्ययं कृत्यः॥६१॥ अपनयति च-विशेषेण स्वर्गापवर्गी नयतीति चशब्देन समुच्चीयते । इह-मोक्षप्रकरणे ॥६॥ अथ विनयस्य शिष्टाभीष्टगुणकसाधनत्वपाह सारं सुमानुषत्वेऽहंदूपसंपदिहाहती। शिक्षास्यां विनयः सम्यगस्मिन् काम्याः सतां गुणाः ॥३२॥ सारं-उपादेयमिष्टफलमिति यावत् । स्वमानुषत्वे-आर्यत्वकुलीनत्वादिगुणोपेते मनुष्यत्वे ॥६२॥ अथ विनयविहीनस्य शिक्षाया विफलत्वमाह शिक्षाहीनस्य नटवल्लिङ्गमात्मविडम्बनम् । अविनीतस्य शिक्षाऽपि खलमैत्रीव किंफला ॥६३॥ किंफला-निष्फला अनिष्टफला च ॥६३॥ 'विनय' शब्द 'वि' उपसर्गपूर्वक 'नी नयने' धातुसे बना है। तो 'विनयतीति विनयः' । विनयतिके दो अर्थ होते हैं-दूर करना और विशेष रूपसे प्राप्त कराना। जो अप्रशस्त कोको दूर करती है और विशेष रूपसे स्वर्ग और मोक्षको प्राप्त कराती है वह विनय है। यह विनय जिनवचनके ज्ञानको प्राप्त करनेका फल है और समस्त प्रकारके कल्याण इस नियमसे ही प्राप्त होते हैं । अतः इसे अवश्य करना चाहिए ॥६१॥ विशेषार्थ-भारतीय साहित्यमें 'विद्या ददाति विनयम्' विद्यासे विनय आती है, यह सर्वत्र प्रसिद्ध है। जब विद्यासामान्यसे विनय आती है तो जिनवाणीके अभ्याससे तो विनय आना ही चाहिए, क्योंकि जिनवाणीमें सद्गुणोंका ही आख्यान है। तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध जिन सोलह कारणभावनाओंसे होता है उनमें एक विनयसम्पन्नता भी है। आज पाश्चात्त्य सभ्यताके प्रभावसे भारतमें विनयको दुर्गण माना जाने लगा है और विनयीको खुशामदी। किन्तु विनय मतलबसे नहीं की जाती। गणानुरागसे की जाती है । स्वार्थसे प्रेरित विनय वितय नहीं है ।।६१।। आगे कहते हैं-इष्ट सद्गुणोंका एकमात्र साधन विनय है आर्यता, कुलीनता आदि गुणोंसे युक्त इस उत्तम मनुष्य पर्यायका सार अहंद्रूप सम्पत्ति अर्थात् जिनरूप नग्नता आदिसे युक्त मुनिपद धारण करना है। और इस अहंद्रूप सम्पदाका सार अर्हन्त भगवानके द्वारा प्रतिपादित जिनवाणीकी शिक्षा प्राप्त करना है। इस आहती शिक्षाका सार सम्यकविनय है। और इस विनयमें सत्पुरुषोंके द्वारा चाहने योग्य समाधि आदि गुण हैं । इस तरह विनय जैनी शिक्षाका सार और जैन गुणोंका मूल है ॥२॥ आगे कहते हैं कि विनयहीनकी शिक्षा विफल है जैनी शिक्षासे हीन पुरुषका जिनलिंग धारण करना नटकी तरह आत्मविडम्बना मात्र है। जैसे कोई नट मुनिका रूप धारण कर ले तो वह हँसीका पात्र होता है वैसे ही जैन धर्मके ज्ञानसे रहित पुरुषका जिनरूप धारणा करना भी है। तथा विनयसे रहित मनुष्यकी शिक्षा भी दुर्जनकी मित्रताके समान निष्फल है या उसका फल बुरा ही होता है ॥६३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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