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________________ ५२६ धर्मामृत (अनगार) अथ विनयस्य तत्त्वार्थमतेन चातुर्विध्यमाचारादिशास्त्रमतेन च पञ्चविधवं स्यादित्युपदिशति दर्शनज्ञानचारित्रगोचरश्चौपचारिकः । चतुर्धा विनयोऽवाचि पञ्चमोऽपि तपोगतः॥६४॥ औपचारिक:-उपचारे धार्मिकचित्तानुग्रहे भवस्तत्प्रयोजनो वा । विनयादित्वात् स्वाथिको वा वणु (?)। पञ्चमोऽपि । उक्तंच 'दसणणाणे विणओ चरित्त तव, ओवचारिओ विणओ। पंचविधो खलु विणओ पंचमगइणाइगो भणिओ ॥ [ मूलाचार, गा. ३६७] ॥६४॥ अथ सम्यक्त्वविनयं लक्षयन्नाह दर्शनविनयः शङ्काद्यसन्निधिः सोपगृहनादिविधिः । भक्त्यर्चावर्णावर्णहत्यनासादना जिनाविषु च ॥६५॥ शङ्काद्यसन्निधिः-शङ्का-काङ्क्षादिमलानां दूरीकरणं वर्जनमित्यर्थः । भक्तिः-अर्हदादीनां गुणानु१२ रागः । अर्चा-द्रव्यभावपूजा। वर्ण:-विदुषां परिषदि युक्तिबलाद्यशोजननम् । अवर्णहृतिः-माहात्म्यसमर्थनेनासदभतदोषोद्धावनाशनम् । अनासादना-अवज्ञानिवर्तनमादरकरणमित्यर्थः ॥६५॥ अथ दर्शनविनयदर्शनाचारयोविभागनिर्ज्ञानार्थमाह दोषोच्छेदे गुणाधाने यत्नो हि विनयो दृशि । दृगाचारस्तु तत्त्वार्थरुचौ यत्नो मलात्यये ॥६६॥ मलात्यये-शङ्काद्यभावे सति । सम्यग्दर्शनादीनां हि निर्मलीकरणे यत्नं विनयमाहुः । तेष्वेव च १८ निर्मलीकृतेषु यत्नमाचारमाचक्षते ॥६६॥ आगे विनयके तत्वार्थसूत्रके मतसे चार और आचार शास्त्रके मतसे पाँच भेद . कहते हैं तत्त्वार्थशास्त्रके विचारकोंने दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय और उपचार विनय, इस प्रकार चार भेद विनयके कहे हैं। और आचार आदि शास्त्रके विचारकोंने तपोविनय नामका एक पाँचवाँ भेद भी कहा है ।।६४॥ विशेषार्थ-तत्त्वार्थ सूत्रमें विनयके चार भेद कहे हैं और मूलाचारमें पाँच भेद कहे हैं ॥६४॥ दर्शनविनयको कहते हैं शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि प्रशंसा और अनायतन सेवा इन अतीचारोंको दूर करना दर्शनको विनय है । उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना गुणोंसे उसे । युक्त करना भी दर्शनविनय है । तथा अर्हन्त सिद्ध आदिके गुणोंमें अनुरागरूप भक्ति, उनकी द्रव्य और भावपूजा, विद्वानोंकी सभामें युक्तिके बलसे जिनशासनको यशस्वी बनाना, उसेपर लगाये मिथ्या लांछनोंको दूर करना, उसके प्रति अवज्ञाका भाव दूर कर आदर उत्पन्न करना ये सब भी सम्यग्दर्शनकी विनय है ॥६५॥ आगे दर्शनविनय और दर्शनाचारमें अन्तर बतलाते हैं सम्यग्दर्शनमें दोषोंको नष्ट करनेमें और गुणोंको लाने में जो प्रयत्न किया जाता है वह विनय है, और दोषोंके दूर होनेपर तत्त्वार्थश्रद्धानमें जो यत्न है वह दर्शनाचार है। अर्थात् १. 'विनयादेः' इत्यनेन स्वाथिके ठणि सति ।-भ. कु. च.। २. भ, आरा., गा. ७४४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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