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________________ ५२४ धर्मामृत ( अनगार) अथैवं दशधा प्रायश्चित्तं व्यवहारात व्याख्याय निश्चयात्तद्भेदपरिमाणनिर्णयार्थमाह व्यवहारनयादित्थं प्रायश्चित्तं दशात्मकम। निश्चयात्तदसंख्येयलोकमात्रभिदिष्यते ॥५९॥ लोकः-प्रमाणविशेषः । उक्तं च 'पल्लो सायर सूई पदरो य घणंगुलो य जगसेढी। लोगपदरो य लोगो अट्ठ पमाणा मुणेयव्वा ॥' [ मूलाचार, गा. ११६ ] ॥५९॥ अथ विनयाख्यतपोविशेषलक्षणार्थमाह स्यात् कषायहषीकाणां विनीतेविनयोऽथवा। रत्नत्रये तद्वति च यथायोग्यमनुग्रहः ॥६०॥ विनीते:-विहिते प्रवर्तनात् सर्वथोनिरोधाद्वा। तद्वति च-रत्नत्रययुक्ते पुंसि चकाराद् रत्नत्रयतद्भावकानुग्राहिणि नृपादौ च । अनुग्रहः-उपकारः॥६०॥ अथ विनयशब्दनिर्वचनपुरस्सरं तत्फलमुपदर्शयंस्तस्यावश्यकर्तव्यतामुपदिशति इस प्रकार व्यवहारनयसे प्रायश्चित्तके दस भेदोंका व्याख्यान करके निश्चयनयसे उसके भेद करते हैं इस प्रकार व्यवहारनयसे प्रायश्चित्तके दस भेद हैं। निश्चयनयसे उसके असंख्यात लोक प्रमाण भेद हैं ।।५।। विशेषार्थ-अलौकिक प्रमाणके भेदोंमें एक भेद लोक भी है। प्रमाणके आठ भेद हैं-पल्य, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, धनांगुल, जगत् श्रेणी, जगत्प्रतर और लोक । निश्चयनय अर्थात परमार्थसे प्रायश्चित्तके भेद असंख्यात लोक प्रमाण हैं। क्योंकि दोष प्रमादसे लगता है और आगममें व्यक्त और अव्यक्त प्रमादोंके असंख्यात लोक प्रमाण भेद कहे हैं। अतः उनसे होनेवाले अपराधोंकी विशुद्धिके भी उतने ही भेद होते हैं । अकलंकदेवने तत्त्वार्थवार्तिक ९।२२ सूत्रके व्याख्यानके अन्तमें कहा है कि जीवके परिणामोंके भेद असंख्यात लोक प्रमाण होते हैं, अतः अपराध भी उतने ही होते हैं किन्तु जितने अपराधके भेद हैं उतने ही प्रायश्चित्तके भेद नहीं हैं । अतः यहाँ व्यवहारनयसे सामूहिक रूपसे प्रायश्चित्तका कथन किया है। 'चारित्रसार में चामुण्डरायने भी अकलंक देवके ही शब्दोंको दोहराया है ।।५९॥ विनय नामक तपका लक्षण कहते हैं क्रोध आदि कषायों और स्पर्शन आदि इन्द्रियोंका सर्वथा निरोध करनेको या शास्त्र विहित कर्ममें प्रवृत्ति करनेको अथवा सम्यग्दर्शन आदि और उनसे सम्पन्न पुरुष तथा 'च' शब्दसे नये रत्नत्रयके साधकोंपर अनुग्रह करनेवाले राजाआ थायोग्य उपकार करनेको विनय कहते हैं ॥६॥ ___विनय शब्दकी निरुक्तिपूर्वक उसका फल बतलाते हुए उसे अवश्य करनेका उपदेश देते हैं१. थाविरो-भ. कु. च.। TEST Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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