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________________ सप्तम अध्याय ५२३ अथ श्रद्धानाख्यं प्रायश्चित्तविकल्पमाह गत्वा स्थितस्य मिथ्यात्वं यद्दीक्षाग्राहणं पुनः । तच्छ्रद्धानमिति ख्यातमुपस्थापनमित्यपि ॥५७॥ स्पष्टम् ॥५७॥ अथ प्रायश्चित्तविकल्पदशकस्य यथापराध प्रयोगविधिमाह सैषा दशतयी शद्धिबलकालाद्यपेक्षया। यथा दोषं प्रयोक्तव्या चिकित्सेव शिवाथिभिः ॥५८॥ शुद्धिः-प्रायश्चित्तम् । कालादि । आदिशब्दात् सत्त्वसंहननादि । पक्षे दूष्यादि च । यथाह 'दूष्यं देशं बलं कालमनलं प्रकृति वयः।। सत्त्वं सात्म्यं तथाहारभवस्थाश्च पृथग्विधाः॥ सूक्ष्मसूक्ष्माः समीक्ष्यकां' दोषौषधिनिरूपणे। यो वर्तते चिकित्सायां न स स्खलति जातुचित् ॥' [ ] दोष:-अतिचारो वातादिश्च ॥५८॥ १२ और गणधरकी आशातना करनेपर जो पारंचिक दिया जाता है वह आशातना पारंचिक है। वह पारंचिक जघन्यसे छह मास और उत्कृष्ट बारह मास होता है। इतने कालतक अपराधी साधु गच्छसे बाहर रहता है। प्रतिसेवना पारंचिकवाला साधु जघन्यसे एक वर्ष और उत्कृष्ट बारह वर्ष गच्छसे बाहर रह है। पारंचिक प्रायश्चित्त जिसे दिया जाता है वह नियमसे आचार्य ही होता है इसीलिए वह अन्य गणमें जाकर प्रायश्चित्त करता है । अपने गणमें रहकर करनेसे नये शिष्य साधु तुरन्त जान सकते हैं कि आचार्यने अपराध किया है । इसका उनपर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। परगणमें जानेपर यह बात नहीं रहती। वहाँ जाकर उसे जिनकल्पिककी चर्या करनी होती है और एकाकी ध्यान और श्रुतचिन्तनमें बारह वर्ष बिताना होते हैं। परगणके आचार्य उसकी देख-रेख रखते हैं। वीरनन्दिकृत आचारसारमें भी ( ६।५४-६४ ) इसका विशेष वर्णन है ॥५६॥ श्रद्धान नामक प्रायश्चित्तका स्वरूप कहते हैं जिसने अपना धर्म छोड़कर मिथ्यात्वको अंगीकार कर लिया है उसे पुनः दीक्षा देनेको श्रद्धान प्रायश्चित्त कहते हैं। इसको उपस्थापन भी कहते हैं ॥५॥ विशेषार्थ-पुनः दीक्षा देनेको उपस्थापना कहते हैं। तत्त्वार्थवार्तिकमें श्रद्धान नामक प्रायश्चित्त नहीं आता। चारित्रेसार तथा आचारसारमें इसका कथन मिलता है ॥५७।। दोषके अनुसार प्रायश्चित्तके इन दस भेदोंके प्रयोगकी विधि बतलाते हैं जैसे आरोग्यके इच्छुक दोषके अनुसार बल, काल आदिकी अपेक्षासे चिकित्साका प्रयोग करते हैं। वैसे ही कल्याणके इच्छुकोंको बल, काल, संहनन आदिकी अपेक्षासे अपराधके अनुसार उक्त दस प्रकारके प्रायश्चित्तोंका प्रयोग करना चाहिए ।।५८॥ १. क्ष्यैषां भ. कु. च.। २. पृ. ६४। ३. ६६५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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