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________________ सप्तम अध्याय अथ प्रायश्चित्तस्यालोचन-प्रतिक्रमण-तदुभय-विवेक-व्युत्सर्ग-तपश्छेदमूल-परिहार-श्रद्धानलक्षणेषु दशसु भेदेषु मध्ये प्रथममालोचनाख्यं तद्भदं निर्दिशति सालोचनाद्यस्तद्भेदः प्रश्रयाद्धर्मसूरये। यद्दशाकम्पिताधूनं स्वप्रमादनिवेदनम् ॥३॥ प्रश्रयात्-विनयात् । उक्तं च 'मस्तकविन्यस्तकरः कृतिकर्म विधाय शुद्धचेतस्कः । आलोचयति सुविहितः सर्वान् दोषांस्त्यजन् रहसि ॥' [ ] ॥३८॥ अथालोचनाया देशकालविधाननिर्णयार्थमाह प्राहेऽपराले सद्देशे बालवत् साधुनाऽखिलम् । स्वागस्त्रिराजेवाद्वाच्यं सूरेः शोध्यं च तेन तत् ॥३९॥ सद्देशे-प्रशस्तस्थाने । यथाह 'अर्हसिद्धसमुद्राब्जसरःक्षीरफलाकुलम् । तोरणोद्यानसमाहियक्षवेश्मबृहद्गृहम् ॥ सुप्रशस्तं भवेत्स्थानमन्यदप्येवमादिकम् । सूरिरालोचनां तत्र प्रतिच्छत्यस्य शुद्धये ॥' [ लिया जाता है। पूज्यपादने यही अर्थ किया है। उत्तरकालमें प्रायश्चित्तकी जो व्युत्पत्ति प्रचलित हुई उसमें यह अर्थ लिया गया है जैसा कि ग्रन्थके उक्त इलोकसे स्पष्ट है। टीकामें ग्रन्थकारने दो व्युत्पत्तियाँ उद्धृत की हैं 'प्रायः लोकको कहते हैं उसका चित्त मन होता है। मनको शुद्ध करनेवाले कर्मको प्रायश्चित्त कहते हैं। इसमें अकलंकदेवकी दोनों व्युत्पत्तियोंका आशय आ जाता है।' 'प्रायः तपको कहते हैं और चित्तका अर्थ है निश्चय अर्थात तप करना चाहिए ऐसा श्रद्धान । निश्चयके संयोगसे तपको प्रायश्चित्त कहते हैं।' ॥३७॥ प्रायश्चित्तके दस भेद हैं-आलोचन, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तपच्छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान । उनमें से प्रथम आलोचन भेदको कहते हैं __ धर्माचार्यके सम्मुख विनयसे जो आकम्पित आदि दस दोषोंसे रहित, अपने प्रमादका निवेदन किया जाता है वह प्रायश्चित्तका आलोचना नामक प्रथम भेद है ॥३८।। विशेषार्थ-आलोचनाके सम्बन्धमें कहा है-दोनों हाथ मस्तकसे लगाकर, कृतिकर्मको करके, शुद्धचित्त होकर सुविहित साधु समस्त दोषोंको त्यागकर एकान्त में आलोचना करता है। एकान्तके सम्बन्ध में इतना विशेष वक्तव्य है कि पुरुष तो अपनी आलोचना एकान्तमें करता है उसमें गुरु और आलोचक दो ही रहते हैं। किन्तु स्त्रीको प्रकाश में आलोचना करना चाहिए तथा गुरु और आलोचक स्त्रीके सिवाय तीसरा व्यक्ति भी होना ही चाहिए ॥३८॥ आगे आलोचनाके देश और कालके विधानका निर्णय करते हैं पूर्वाह्न या अपरालके समय प्रशस्त स्थानमें धर्माचार्यके आगे बालककी तरह सरलतासे तीन बार स्मरण करके अपना समस्त अपराध या पाप साधुको कहना चाहिए ॥३९।। १. प्रमाददोषपरिहारः प्रायश्चित्तम् । सर्वार्थ. ९।२० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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