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________________ ५१४ धर्मामृत (अनगार) सद्देश इत्युपलक्षणात् सुलग्नेऽपि । तदुक्तम् 'आलोयणादिआ पुण होदि पसत्थे वि शुद्धभावस्स । पुव्वण्हे अवरण्हे सोमतिहिरक्खवेलाए ॥' [ भ. आरा., गा. ५५४ ] बालवत् । उक्तं च 'जह बालो जपतो कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणदि । तह आलोचेदव्वं माया मोसं च मुत्तूण ॥' [ मूलाचार., गा. ५६ ] त्रिः-त्रीन् वारान् । स्मृत्वेत्यध्याहारः । उक्तं च 'इय उजुभावमुवगदो सव्वे दोसे सरित्तु तिक्खुत्तो। लेस्साहि विसुज्झतो उवेदि सल्लं समुद्धरिदुं ।' [ भग. आरा., गा. ५५३ ] शोध्यं-सुनिरूपितप्रायश्चित्तदानेन निराकार्यम् ।।३९॥ अथैकादशविराधितमार्गेणाकम्पितादिदशदोषवर्जी पदविभागिकामालोचनां कृत्वा तपोऽनुष्ठेयमस्मर्य१२ माणबहुदोषेण छिन्नव्रतेन वा पुनरौघीमिति श्लोकपञ्चकेनाचष्टे आकम्पितं गुरुच्छेदभयादावर्जनं गुरोः । तपःशूरस्तवात्तत्र स्वाशक्त्याख्यानुमापितम् ॥४०॥ यद् दृष्टं दूषणस्यान्यदृष्टस्यैव प्रथा गुरोः। बादरं बादरस्यैव सूक्ष्म सूक्ष्मस्य केवलम् ॥४१॥ छन्नं कोक्चिकित्से दगदोषे पृष्ट्वेति तद्विधिः । शब्दाकुलं गुरोः स्वागः शब्दनं शब्दसंकुले ॥४२॥ विशेषार्थ-यहाँ आलोचना कब करना चाहिए और कहाँ करना चाहिए इसका निर्देश किया है। प्रातःकाल या दोपहरके पश्चात् प्रशस्त स्थानमें गुरुके सामने बालककी तरह सरल भावसे आलोचना करना चाहिए। जैसे बालक अच्छी और बुरी सब बाते सरल भावसे कहता है उसी तरह साधुको माया और झूठको छोड़कर आलोचना करना चाहिए। इससे उसकी विशुद्धि होती है । भ. आराधनामें (गा. ५५४) ऐसा ही कहा है-'विशुद्ध परिणामवाले क्षपककी आलोचना आदि प्रशस्त क्षेत्रमें दिनके पूर्व भाग या उत्तर भागमें शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभसमयमें होती है । अर्थात् आलोचनाके लिए परिणामोंकी विशुद्धिके साथ क्षेत्रशुद्धि और कालशुद्धि भी आवश्यक है ॥३९॥ जिस साधुने रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गकी एकदेश विराधना की है उसे आकम्पित आदि दस दोषोंसे रहित पदविभागिकी नामक आलोचना करके तपस्या करना चाहिए। और जिसे अपने बहुत-से दोषोंका स्मरण नहीं है, अथवा जिसने अपने व्रतको भंग कर लिया है उसे औघी आलोचना करना चाहिए, यह बात पाँच इलोकोंसे कहते हैं महाप्रायश्चित्तके भयसे उपकरणदान आदिसे गुरुको अल्पप्रायश्चित्त देनेके लिए अपने अनुकूल करना आकम्पित नामक आलोचना दोष है। वे धन्य हैं जो वीर पुरुषों के करने योग्य उत्कृष्ट तपको करते हैं इस प्रकार तपस्वी वीरोंका गुणगान करके तपके विषयमें गुरुके सामने अपनी अशक्ति प्रकट करना, इस तरह प्रार्थना करनेपर गुरु थोड़ा प्रायश्चित्त देकर मुझपर कृपा करेंगे इसलिए अनुमानसे जानकर अपना अपराध प्रकट करना अनुमापित दोष है। दूसरेके द्वारा देख लिये गये दोषको ही प्रकट करना और जो अपना दोष दूसरेने नहीं देखा उसे छिपाना यदृष्ट नामक दोष है। गुरुके सामने स्थूल दोषको ही प्रकट करना और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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