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________________ ५१२ धर्मामृत ( अनगार) अमर्यादा-प्रतिज्ञातलक्षणं (प्रतिज्ञातव्रतलङ्घनम् ) । उक्तं च 'महातपस्तडागस्य संभृतस्य गुणाम्भसा । मर्यादापालिबन्धेऽल्पोमप्युपेत्तिष्ठ मा क्षतिम् ।।' [ ] अनवस्था-उपर्युपर्यपराधकरणम् ॥३५-३६॥ अथ प्रायश्चित्तशब्दस्य निर्वचनार्थमाह प्रायो लोकस्तस्य चित्तं मनस्तच्छुद्धिकृत्क्रिया। प्राये तपसि वा चित्तं निश्चयस्तन्निरुच्यते ॥३७॥ यथाह 'प्राय इत्युच्यते लोकस्तस्य चित्तं मनो भवेत् । एतच्छुद्धिकरं कर्म प्रायश्चित्तं प्रचक्षते ॥' यथा वा 'प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चयसंयुतम् । तपो निश्चयसंयोगात् प्रायश्चित्तं निगद्यते ॥' [ ] ॥३७॥ विशेषार्थ-प्रमादसे चारित्रमें लगे दोषोंका यदि प्रायश्चित्त द्वारा शोधन न किया जाये तो फिर दोषोंकी बाढ़ रुक नहीं सकती। एक बार मर्यादा टूटनेसे यदि रोका न गया तो वह मर्यादा फिर रह नहीं सकती। इसलिए प्रायश्चित्त अत्यन्त आवश्यक है। कहा भी है-'यह महातप रूपी तालाब गुणरूपी जलसे भरा है। इसकी मर्यादारूपी तटबन्दीमें थोड़ी सी भी क्षति की उपेक्षा नहीं करना चाहिए। थोड़ी-सी भी उपेक्षा करनेसे जैसे तालाबका पानी बाहर निकलकर बाढ़ ला देता है वैसे ही उपेक्षा करनेसे महातपमें भी दोषों की बाढ़ आनेका भय है' ।।३५-३६।।। प्रायश्चित शब्दकी निरुक्ति करते हैं प्रायश्चित्त शब्द दो शब्दों के मेल से बना है। उसमें 'प्राय' का अर्थ है लोक और चित्तका अर्थ है मन । यहाँ लोकसे अपने वर्गके लोग लेना चाहिए । अर्थात् अपने साधर्मी वर्गके मनको प्रसन्न करनेवाला जो काम है वह प्रायश्चित्त है। 'प्रायः' शब्द का अर्थ तप भी है और चित्तका अर्थ निश्चय । अर्थात् यथायोग्य उपवास आदि तपमें जो यह श्रद्धान है कि यह करणीय है उसे प्रायश्चित्त कहते हैं । यह प्रायश्चित्तका निरुक्तिगत अर्थ है ॥३७॥ विशेषार्थ-पूर्वशास्त्रों में प्रायश्चित्त शब्दकी दो निरुक्तियाँ पायी जाती हैं, उन दोनोंका, संग्रह ग्रन्थकारने कर दिया है । आचार्य पूज्यपादने अपनी सर्वार्थसिद्धिमें प्रायश्चित्त की कोई निरुक्ति नहीं दी। उमास्वाति के तत्त्वार्थ भाष्य में 'अपराधो वा प्रायस्तेन विशुद्धयति' आता है। अकलंकदेवने दो प्रकारसे व्युत्पत्ति दी है-'प्रायः साधुलोकः। प्रायस्य यस्मिन् कर्मणि चित्तं प्रायश्चित्तम् । अपराधो वा प्रायः, चित्तं शुद्धिः, प्रायस्य चित्तं प्रायश्चित्तं-अपराधविशद्धिरित्यर्थः ।-(त. वा. ९।२०।१)' इसमें प्रायश्चित्तके दो अर्थ किये हैं-प्रायः अर्थात् साधुजन, उसका चित्त जिस काम में हो उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। और प्रायः अर्थात् अपराधकी शुद्धि जिसके द्वारा हो उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। यथार्थमें प्रायश्चित्तका यही अभिप्राय १. भ. कु. च.। २. -ल्पावप्युपैक्षिष्ट भ. कु. च. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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