SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 568
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( सप्तम-अध्यामानात ५१२ बाह्यद्रव्यानपेक्षत्वात् स्वसंवेद्यत्वतःपरैः । ------ --... अनध्यासात्तपः प्रायश्चिताचभ्यन्तरे-भवेत् ॥श्शाला ' बाह्यद्रव्यानपेक्षत्वात-अन्तःकरणव्यापारप्रधानत्वात् । परैः-तैथिकान्तरैः ॥३३॥ अथ प्रायश्चित्तं लक्षयितुमाह यत्कृत्याकरणे वाऽवर्जने च रजोऽजितम् । सोऽतिचारोऽत्र तच्छुद्धिः प्रायश्चित्तं दशात्म तत् ॥३४॥ • वावर्जने-वय॑स्याकर्तव्यस्य हिंसादेरवर्जनेऽत्यागे आवर्जने वा अनुष्ठाने । तच्छुद्धिः-तस्य शुद्धिः । शुद्धयत्यनयेति शोधनम् । तस्य वा शुद्धिरनेनेति तच्छुद्धीति ग्राह्यम् । उक्तं च 'पायच्छित्तं ति तओ जेण विसुज्झदि हु पुवकयपावं । पायच्छित्तं पत्तोत्ति तेण बुत्तं दसविहं तु ॥' [ मूलाचार, गा. ३६१ ] 'पायच्छित्तं पत्तोत्ति' प्रायश्चित्तमपराधं प्राप्तः सन् । परे त्वेवमाहुः 'अकुर्वन् विहितं कर्म निन्दितं च समाचरन् । प्रसश्चेन्द्रियार्थेष प्रायश्चित्तीयते नरः ॥ ] ॥३४॥ अथ किमर्थं प्रायश्चित्तमनुष्ठीयत इति पृष्ठो श्लोकद्वयमाह प्रमाददोषविच्छेदममर्यादाविवर्जनम् । भावप्रसादं निः(नै)शल्यमनवस्थाव्यपोहनम् ॥३५॥ चतुर्धाराधनं दाढचं संयमस्येवमादिकम् । सिसाधयिषताऽऽचयं प्रायश्चित्तं विपश्चिता ॥३६॥ प्रायश्चित्त आदि अन्तरंग तप हैं क्योंकि इनमें बाह्य द्रव्यकी अपेक्षा न होकर अन्तःकरणका व्यापार मुख्य है। दूसरे, ये आत्माके द्वारा ही जाने जाते हैं, दूसरोंको इनका पता नहीं चलता। तीसरे, अन्य धर्मों में इनका चलन नहीं है ।।३३।। प्रायश्चित्त तपका लक्षण कहते हैं अवश्यकरणीय आवश्यक आदिके न करनेपर तथा त्यागने योग्य हिंसा आदिको न त्यागनेपर जो पाप लगता है उसे अतिचार कहते हैं। उस अतिचारकी शुद्धिको यहाँ प्रायश्चित्त कहते हैं। उसके दस भेद हैं। विशेषार्थ-कहा है-'जिसके द्वारा पूर्वकृत पापोंका शोधन होता है उसे प्रायश्चित्त नामक तप कहते हैं। उसके दस भेद हैं। __ प्रायश्चित्त का विधान अन्य धर्मों में भी पाया जाता है। कहा है-'जो मनुष्य शास्त्रविहित कर्मको नहीं करता या निन्दित कर्म करता है और इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त रहता है वह प्रायश्चित्तके योग्य है-उसे प्रायश्चित्त करना चाहिए' ॥३४॥ प्रायश्चित्त क्यों किया जाता है, यह दो इलोकोंसे बतलाते हैं चारित्रमें असावधानतासे लगे दोषोंको दूर करना, अमर्यादाका अर्थात् प्रतिज्ञात व्रतके उल्लंघनका त्याग यानी व्रतकी मर्यादाका पालन, परिणामोंकी निर्मलता, निःशल्यपना, उत्तरोत्तर अपराध करनेकी प्रवृत्तिको रोकना, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप इन चारोंका उद्योतन आदि, तथा संयमकी दृढ़ता, इसी प्रकार के अन्य भी कार्योंको साधनेकी इच्छा करनेवाले दोषज्ञ साधुको प्रायश्चित्त तप करना चाहिए 1३५-३६॥ : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy