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________________ षष्ठ अध्याय .. अथास्रवं निरुन्धानस्यैव मुमुक्षोः क्षेमं स्यादन्यथा दुरन्तसंसारपात इत्युपदेष्टुमाह विश्वातङ्कविमुक्तमुक्तिनिलयद्रङ्गानिमाप्त्यन्मुखः, ___सद्रत्नोच्चयपूर्णमुद्भटविपद्भीमे भवाम्भोनिधौ। योगच्छिद्रपिधानमादधदुरूद्योगः स्वपोतं नये न्नो चेन्मक्ष्यति तत्र निर्भरविशत्कर्माम्बुभारादसौ ॥७१॥ द्रङ्गाग्रिमं-प्रसिद्धाधिष्ठानं समुद्रतटपत्तनादि। स्वपोतं-आत्मानं यानपात्रमिव भवार्णवोत्तारण- ६ प्रवणत्वात् ॥७१॥ अथ संवरगुणांश्चिन्तयतिपड़नेसे पापकर्मका आस्रव कहा जाता है। अन्यथा केवल पुण्यकर्मका आस्रव नहीं होता क्योंकि घातिया कर्म पुण्यकर्मके साथ भी तबतक अवश्य बँधते हैं जबतक उनके बन्धका निरोध नहीं होता । पुण्यकर्मको सोनेकी साँकल और पापकर्मको लोहेकी साँकलकी उपमा दी । गयी है। अज्ञानी जीव पुण्यकर्म के बन्धको अच्छा मानते हैं क्योंकि उसके उदयमें सुखसामग्रीकी प्राप्ति होती है । यह सुख मानना वैसा ही है जैसे कोई राजपुरुष सोनेकी साँकलसे बाँधा जानेपर सुखी होता है । वस्तुतः बन्धन तो बन्धन ही है जैसे लोहेकी सांकलसे बँधा. मनुष्य परतन्त्र होता है वैसे ही सोनेकी साँकलसे बँधा मनुष्य भी परतन्त्र होता है। इसीसे तत्त्वज्ञानी पुण्य-पापमें भेद नहीं करते, दोनोंको ही बन्धन मानते हैं ॥७॥ - जो मुमुक्षु आस्रव को रोक देता है उसीका कल्याण होता है। आस्रवको न रोकनेपर .. दुरन्त संसारमें भ्रमण करना पड़ता है, ऐसा उपदेश देते हैं यह संसार समुद्र के समान न टारी जा सकनेवाली विपत्तियोंके कारण भयंकर है। इस संसारसमुद्रसे पार उतारने में समर्थ होनेसे अपना आत्मा जहाजके समान है। जैसे जहाजमें उत्तम रत्न आदि भरे होते हैं वैसे ही इस आत्मारूपी जहाजमें सम्यग्दर्शन आदि गुणोंका भण्डार भरा है । इसका संचालक महान उद्योगी अप्रमत्त संयत मुनि है। उसे चाहिये कि योग रूपी छिद्रोंको बन्द करके इसे उस मुक्तिरूपी तटवर्ती नगरकी ओर ले जाये, जो जगत्के समस्त प्रकारके क्षोभोंसे रहित है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो यह आत्मारूपी जहाज उसमें तेजीसे प्रवेश करनेवाले कम रूपी जलके भारसे उसी संसार समुद्र में डूब जायेगा ||७|| . विशेषार्थ-संसाररूपी समुद्र में पड़े हुए इस आत्मारूपी जहाजमें योगरूपी छिद्रोंसे कर्मरूपी जल सदा आता रहता है। तत्त्वार्थ सूत्रके छठे अध्यायमें पाँच इन्द्रिय, चार कषाय. पाँच पाप और पचीस क्रियाओंको साम्परायिक आस्रवका कारण कहा है। क्योंकि ये सब अतीन्द्रियज्ञान स्वभाव तथा रागादि विकल्पोंसे शून्य चैतन्यके घातक हैं । अतः इनको रोके बिना परमात्मपदरूपी उस तटवर्ती महान् नगर तक आत्मरूपी जहाज नहीं जा सकता। तत्त्वार्थवार्तिकमें अकलंक देवने भी कहा है कि समुद्र में छेद सहित जहाजकी तरह यह जीव इन्द्रियादिके द्वारा होनेवाले आस्रवोंके कारण संसार समुद्र में डूब जाता है। ऐसा चिन्तन करनेसे उत्तम क्षमादि रूप धमों में 'ये कल्याणकारी हैं। इस प्रकारकी बुद्धि स्थिर होती है । इस प्रकार आस्रव भावनाका कथन किया ॥७१।। अब संवरके चिन्तनके लिए उसके गुणोंका विचार करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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