SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 523
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६६ धर्मामृत ( अनगार) कर्मप्रयोक्तृपरतन्त्रतयात्मरगे प्रव्यक्तभूरिरसभावभरं नटन्तीम् । चिच्छक्तिमग्रिमपुमर्थसमागमाय व्यासेधतः स्फुरति कोऽपि परो विवेकः ॥७२॥ कर्मप्रयोक्ता-ज्ञानावरणादिकर्मविपाको नाट्याचार्यः। रङ्गः-नर्तनस्थानम् । रसः-विभावा६ दिभिरभिव्यक्तः स्थायीभावो रत्यादिभावः देवादिविषया रतिः। व्यभिचारी च व्यक्तः। नटन्ती अवस्यन्दमानाम् । जीवेन सह भेदविवक्षया चिच्छक्तेरेवमुच्यते । स एष आत्मप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणः कर्मा सवकारणं योगो बोध्यः । उक्तं च 'पोग्गलविवाइदेहोदएण मणवयणकायजुत्तस्स। जीवस्स जा हु सत्ती कम्मागमकारणं जोगो॥' [ गो. जी., गा. २१५ ] एतेन नर्तकीमुपमानमाक्षिपति । अग्रिमपुमर्थः-प्रधानपुरुषार्थों धर्मो मोक्षो वा । पक्षे, कामस्याग्रे १२ भवत्वादर्थः । तस्यैव विजिगीषुणा यत्नतोऽर्जनीयत्वाद् विषयोपभोगस्य चेन्द्रियमनः प्रसादनमात्रफलत्वेन यथावसरमनुज्ञानात् । व्यासेधतः-निषेधतः सतः । परो विवेक:-शद्धोपयोगेऽवस्थानं हिताहितविचारश्च । उक्तं च 'विहाय कल्पनाजालं स्वरूपे निश्चलं मनः । यदाधत्ते तदैव स्यान्मुनेः परमसंवरः ॥' [ ज्ञानार्णव २११३८ ] ॥७२॥ अथ मिथ्यात्वाद्यास्रवप्रकारान् शुद्धसम्यक्त्वादिसंवरप्रकानिरुन्धतो मुख्यमशुभकर्मसंवरणमानुषंगिकं १८ च सर्वसंपत्प्राप्तियोग्यत्वफलमाह जैसे नर्तकी नृत्य के प्रयोक्ता नाट्याचार्यकी अधीनतामें रंगभूमिमें नाना प्रकारके रसों और भावोंको दर्शाती हुई नृत्य करती है, जो विजिगीषु कामके आगे होनेवाले पुरुषार्थकी प्राप्ति के लिए उस नृत्य करनेवाली नटीको रोक देते हैं उनमें कोई विशिष्ट हिताहित विचार प्रकट होता है, उसी तरह ज्ञानावरण आदि कर्मोके विपाकके वश में होकर आत्मारूपी रंगभूमिमें अनेक प्रकारके रसों और भावोंको व्यक्त करती हुई चित्शक्ति परिस्पन्द करती है। प्रधान पुरुषार्थ मोक्ष या धर्मकी प्राप्तिके लिए जो घटमान योगी मुनि उसे रोकते हैं उनके कोई अनिर्वचनीय उत्कृष्ट विवेक अर्थात् शुद्धोपयोगमें स्थिति प्रकट होती है ॥७२॥ विशेषार्थ-चेतनकी शक्तिको चित्शक्ति कहते हैं। जीवके साथ भेदविवक्षा करके उक्त प्रकारसे कथन किया है। अन्यथा चित्शक्ति तो जीवका परिणाम है वह तो द्रव्यके' आश्रयसे रहती है। चितशक्तिके चलनको ही आत्मप्रदेश परिस्पन्दरूप योग कह कर्मोंके आस्रवका कारण है । कहा है-पुद्गल विपाकी शरीर नामकर्मके उदयसे मन-वचनकायसे युक्त जीवकी जो शक्ति कर्मोंके आनेमें कारण है उसे योग कहते हैं। चेतनकी इस शक्तिको रोककर शुद्धोपयोगमें स्थिर होनेसे ही परम संवर होता है । कहा हैकल्पना जालको दूर करके जब मन स्वरूपमें निश्चल होता है तभी ही मुनिके परम संवर होता है ॥७२॥ संवरके शुद्ध सम्यक्त्व आदि भेदोंके द्वारा जो आस्रवके मिथ्यात्व आदि भेदोंको रोकते हैं उन्हें अशुभ कर्मोके संवर रूप मुख्य फलकी और सम्पूर्ण सम्पत्तियोंको प्राप्त करनेकी योग्यता रूप आनुषंगिक फलकी प्राप्ति होती है, ऐसा कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy