SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 521
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मामृत ( अनगार) अथास्रवमनुप्रेक्ष्यमाणस्तद्दोषांश्चिन्तयन्नाहयुक्ते चित्तप्रसत्त्या प्रविशति सुकृतं तद्भविन्यत्र योग द्वारेणाहत्य बद्धः कनकनिगडवद्येन शर्माभिमाने। मूर्छन् शोच्यः सतां स्यादतिचिरमयमेत्यात्तसंक्लेशभावे, यत्वं हस्तेन लोहान्दुकवदसितच्छिन्नमर्मेव ताम्येत् ॥७०॥ योगद्वारेण-कायवाङ्मनःकर्ममुखेन । एति-आगच्छति, आस्रवतीति यावत् । आत्तसंक्लेशभावे-अप्रशस्तरागद्वेषमोहपरिणते भविनि । अवसितः-बद्धः। छिन्नमर्मा 'विषमं स्पन्दनं यत्र पोडनं रुक् च ममं तत्' ॥ [ ॥७०॥ शक्य नहीं होता। इसलिए आत्माका वासस्थान होनेसे परम पवित्र इस शरीरको सम्यक् रूपसे शुद्ध निज आत्माके दर्शनकी विधिमें प्रधान बनाकर सकल जगत्की विशुद्धिका अंग बनाओ ॥६९|| विशेषार्थ-यद्यपि शरीर परम अपवित्र है तथापि उसमें आत्माका वास है इसीलिए वह पवित्र है। अब उस शरीरमें रहते हुए उसके द्वारा वह सब सत्कार्य करना चाहिए जिससे अपनी शुद्ध आत्माका दर्शन हो। और शुद्ध आत्माके दर्शन होनेपर धीरे-धीरे परमात्मा बनकर अपने विहारसे, दिव्योपदेशसे इस जगत्को तीर्थरूप बना डालो। इस तरह यह स्वयं अपवित्र शरीर पवित्र आत्माके योगसे सकल जगत को पवित्र बनाने में समर्थ होता है। इस प्रकार विचार करनेसे विरक्त हुआ मुमुक्षु अशरीरी होनेका ही प्रयत्न करता है ॥६९|| अब आस्रवका विचार करनेके लिए उसके दोषोंका विचार करते हैं जिस समय यह संसारी जीव प्रशस्त राग, दयाभाव आदि परिणामसे युक्त होता है। उस समय मन या वचन या कायकी क्रियाके द्वारा होनेवाले आत्मप्रदेश परिस्पन्दरूप योगके द्वारा पुण्यकर्मके योग्य पुद्गलोंका प्रवेश होता है । उस विशिष्ट शक्ति परिणाम रूपसे अवस्थित पुण्यकर्मसे यह जीव बलपूर्वक बँध जाता है। जैसे कोई राजपुरुष सोनेकी बेड़ियोंसे बाँधा जानेपर अपना बड़प्पन मानकर यदि सुखी होता है तो वस्तुस्थितिको समझनेवाले उसपर खेद ही प्रकट करते हैं, उसी तरह पुण्यकर्मसे बद्ध होनेपर 'मैं सुखी हूँ' इस प्रकारका अहंकार करके पल्योपम आदि लम्बे काल तक मोहमें पड़े व्यक्तिपर तत्त्वदर्शी जन खेद ही प्रकट करते हैं। और जिस समय यह जीव अप्रशस्त राग-द्वेष आदि रूप परिणामोंसे युक्त होता है तो आत्म प्रदेश-परिस्पन्दरूप योगके द्वारापापकर्मके योग्य पुद्गलोंका प्रवेश होता है। विशिष्ट शक्ति परिणाम रूपसे अवस्थित उस पापकर्मसे चिरकाल तक बद्ध हुआ जीव उसी तरह कष्ट भोगता है जैसे कोई अपराधी लोहेकी साँकलसे बाँधे जानेपर मर्मस्थानके छिद जानेसे दुःखी होता है ॥७॥ विशेषार्थ-मनोवर्गणा, वचनवर्गणा या कायवर्गणाके निमित्तसे होनेवाले आत्माके प्रदेशोंके हलनचलनको योग कहते हैं। इस योगके निमित्तसे ही जीवमें पौद्गलिक ज्ञानावरणादि कर्मोंका आस्रव अर्थात् आगमन होता है। जिस समय जीवके शुभ परिणाम होते हैं उस समय पुण्यकर्मों में स्थिति अनुभाग विशेष पड़नेसे पुण्यकर्मका आस्रव कहा जाता है और जिस समय संक्लेश परिणाम होते हैं उस समय पापकर्म में विशेष स्थिति अनुभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy