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________________ ३ ६ धर्मामृत (अनगार ) तदेकमूलत्वादाचारप्रकाशायोः ( - शनायाः) । कायशुद्धिस्तु निरावरणाभरणा निरस्तसंस्कारा यथा जाता मधारिणी निराकृताङ्गविकारा सर्वत्र प्रयतवृत्तिः प्रशमं मूर्तमिव प्रदर्शयन्तीव स्थात् । तस्यां च सत्यां न स्वतोऽन्यस्य नाप्यन्यतः स्वस्य भयमुद्भवति । स एष शुद्धयष्टकप्रपञ्चः समित्यादिभ्योऽपोद्धृत्य सूत्रे स्वाख्यायते संयमस्यातिदुष्करतया परिपालने सुतरां बालाशक्तानगारवर्गस्य प्रयत्नप्रतिसंधानार्थमिति ॥४९॥ अथ उपेक्षासंयमपरिणतं लक्षयति ४४८ पुत्रका भी आलिंगन करती है और पतिका भी । किन्तु दोनोंके भावों में बड़ा अन्तर है । शरीरपर न कोई वस्त्र हो न आभूषण, न उसका संस्कार-स्नान, तेल मर्दन आदि किया गया हो, जन्म के समय जैसी स्थिति होती है वही नग्न रूप हो, मल लगा हो, किसी अंगमें कोई विकार न हो, सर्वत्र सावधानतापूर्वक प्रवृत्ति हो, जिसे देखने से ऐसा प्रतीत हो, मानो मूर्तिमान प्रशमगुण है । इसे ही कायशुद्धि कहते हैं । इसके होनेपर न तो अपने को दूसरों भय होता है और न दूसरोंको अपनेसे भय होता है। क्योंकि संयमका पालन अत्यन्त दुष्कर है अतः उसके पालन में जो मुनि बालक या वृद्ध हैं उनको प्रयत्नशील बनानेके लिए इन आठशुद्धियों का समिति आदिसे उद्धार करके आगम में विस्तारसे कथन किया गया है ||४९ || उपेक्षा संयमका स्वरूप कहते हैं मी मत्सुहृदः पुराणपुरुषा मत्कर्मक्लृप्तोदयैः स्वः स्वैः कर्मभिरीरितास्तनुमिमां मन्नेतृकां मद्विया । चञ्चम्यन्त इमं न मामिति तदाबाधे त्रिगुप्तः परा क्लिष्ट योत्सृष्टवपुर्बुधः समतया तिष्ठत्युपेक्षायमी ॥५०॥ शरीर और आत्माके भेदको जाननेवाला उपेक्षा संयमी उपद्रव करनेवाले व्याघ्र आदि जीवोंके द्वारा कष्ट दिये जानेपर भी उनको कोई कष्ट नहीं देता, और मन-वचन-काय के व्यापारका अच्छी रीतिसे निग्रह करके शरीर से ममत्व हटाकर समभाव से स्थिर रहता हुआ विचारता है कि ये व्याघ्र आदि जीव भी परमागम में प्रसिद्ध परमात्मा है, मेरे मित्र हैं, मेरे उपघात नामकर्मका उदय है और इनके परघात नामकर्मका उदय है । उसीसे प्रेरित होकर ये इस शरीर को ही मुझे मानकर खा रहे हैं क्योंकि मैं इस शरीरका नेता हूँ, जैसे कार काँवरका होता है । किन्तु स्वयं मुझे नहीं खा सकते ॥५०॥ विशेषार्थ - उपेक्षा संयमका मतलब ही इष्ट और अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष न करके समता भाव रखना है | अतः उपेक्षा संयमका अर्थ ही साम्यभाव है । यह साम्यभाव इतना उन्नत होता है कि व्याघ्रादिके द्वारा खाये जानेपर भी चलित नहीं होता । शेर भँभोड़-भँभोड़कर खा रहा है और उपेक्षा संयमी शेरकी पर्याय में वर्तमान जीवको दशा और स्वरूपका विचार करता है । परमागम में कहा है कि सभी जीव द्रव्यरूपसे परमात्मा हैं । कहा हैइस सिद्ध पर्याय में जो वैभव शोभित होता है बद्धदशामें भी यह सब वैभव पूरी तरह से १. भ. कु. च. 1 २. प्रयत्न भ. कु. च. । ३. सूत्रेऽन्वाख्या - भ. कु. च. ४. 'सिद्धत्वे यदिह विभाति वैभवं वो बद्धत्वेऽप्यखिलतया किलेदमासीत् । बद्धत्वे न खलु तथा विभात मित्थं बीजत्वे तरुगरिमात्र किं विभाति ।। ' [ Jain Education International For Private & Personal Use Only 1 www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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