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________________ षष्ठ अध्याय अमी-व्याघ्रादिरूपाः। मत्सुहृदः-मया सदृशाः अथवा अनादिसंसारे पित्रादिपर्यायेण ममोपकारकाः । यदाहुः 'सर्वे तातादिसंबन्धा नासन् यस्याङ्गिनोऽङ्गिभिः।। सर्वैरनेकधा साधं नासावनयपि विद्यते ॥ [ ] पुराणपुरुषाः। पराक्लिष्टा परेषामुपद्रावकजीवानामनुपघातेन । उत्सृष्टवपुः-ममत्वव्यावर्तनेन परित्यक्तशरीरः । बुधः-देशकालविधानज्ञः ॥५०॥ • अथ उपेक्षासंयमसिद्धयङ्ग तपोरूपे धर्मेऽनुष्ठातृनुत्साहयन्नाह उपेक्षासंयमं मोक्षलक्ष्मीश्लेषविचक्षणम् । लभन्ते यमिनो येन तच्चरन्तु परं तपः ॥५१॥ परं-उत्कृष्टं स्वाध्यायध्यानरूपमित्यर्थः ॥५१॥ था किन्तु बद्धदशामें वह वैसा शोभित नहीं था। क्या बीज पर्यायमें वृक्षकी गरिमा शोभित होती है ? और भी कहा है-'सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया'। शुद्धनयसे सभी जीव शुद्ध-बुद्ध हैं। अतः ये सिंह आदि भी मेरे मित्र हैं। जो स्वरूप मेरी आत्माका है वही इनकी आत्माका है। पर्याय दृष्टि से देखनेपर भी ये मेरे पूर्व बन्धु हो सकते हैं क्योंकि अनादि संसारमें कौन जीव किसका पिता-पुत्र आदि नहीं होता। कहा है-'जिस प्राणीके सब प्राणियोंके साथ सब पिता-पुत्र आदि अनेक सम्बन्ध नहीं रहे ऐसा कोई प्राणी ही नहीं है। दूसरे, खानेवाला शेर मुझे तो खा ही नहीं सकता। मैं तो टाँकीसे उकेरे हुएके समान ज्ञायक भावरूप स्वभाववाला हूँ। व्यवहारमें यदि यह खाता है तो खाये । वास्तवमें जो स्वात्म संवेदनमें लीन होता है उसे बाह्य दुःखका बोध नहीं होता। कहा है-जो योगी शरीर आदिसे हटाकर आत्माको आत्मामें ही स्थिर करता है और व्यवहार-प्रवृत्तिनिवृत्तिसे दूर रहता है, उसे स्वात्माके ध्यानसे वचनातीत आनन्द होता है। यह आनन्द निरन्तर प्रचुर कर्मरूपी ईधनको जलाता है। तथा उस आनन्दमग्न योगीको परीषह उपसर्ग आदि बाह्य दुःखोंका बोध नहीं होता । इसीसे उसे कोई खेद नहीं होता। और भी कहा हैशरीर और आत्माके भेदज्ञानसे उत्पन्न हुए आनन्दसे आनन्दित योगी तपके द्वारा उदीर्ण किये गये घोर दुष्कर्मोको भोगता हुआ भी खेदखिन्न नहीं होता ॥५०॥ इस तरह संयमका प्रकरण समाप्त होता है। आगे उपेक्षा संयमकी सिद्धिके सहायक तपधर्ममें तपस्वियोंको उत्साहित करते हैं जिसके द्वारा साधुजन अनन्त ज्ञानादि चतुष्टयरूप मोक्षलक्ष्मीका आलिंगन कराने में चतुर दूतके समान उपेक्षा संयमको प्राप्त करते हैं उस उत्कृष्ट तपको करना चाहिए ।।५।। १. आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य व्यवहारवहिःस्थितेः । जायते परमानन्दः कश्चिद्योगेन योगिनः ॥ आनन्दो निर्दहत्यचं कर्मेन्धनमनारतम । न चासौ खिद्यते योगी बहिःखेष्वचेतनः ॥--इष्टोपदे., ४७-४८ श्लोक । आत्मदेहान्तरज्ञान-जनिताह्लाद निर्वृतः ।। तपसा दुष्कृतं घोरं भञ्जानोऽपि न खिद्यते ॥--समाधितं. ३४ श्लो, । ५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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