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________________ षष्ठ अध्याय भिक्षेत्यादि । भिक्षाशुद्धिः प्रागुक्ता, तत्परस्य मुनेरशनं गोचाराक्ष - प्रक्षणोदराग्निप्रशमन-भ्रमराहारश्वभ्रपूरणनामभेदात् पञ्चधा स्यात् । तत्र गोर्बलीवर्दस्येव चारोऽभ्यवहारो गोचारः प्रयोक्तृततसौन्दर्यनिरीक्षणविमुखतया यथालाभमनपेक्षितस्वादोचित संयोजनाविशेषं चाभ्यवहरणात् । तथा अक्षस्य शकटीचक्राधिष्ठानकाष्ठस्य म्रक्षणं स्नेहेन लेपनमक्षम्रक्षणम् । तदिवाशनमप्यक्ष प्रक्षणमिति रूढम् । येन केनापि स्नेहेनेव निरवद्याहारेणायुषोऽक्षस्येवाभ्यङ्गं प्रतिविधाय गुणरत्नभारपूरिततनुशकट्याः समाधीष्टदेशप्रापणनिमित्तत्वात् तथा भाण्डागारवदुदरे प्रज्वलितोऽग्निः प्रशाम्यते येन शुचिनाऽशुचिना वा जलेनेव सरसेनारसेन वाऽशनेन तदुदराग्नि- ६ प्रशमनमिति प्रसिद्धम् । तथा भ्रमरस्येवाहारो भ्रमराहारो दातृजनपुष्पपीडानवतारात् परिभाव्यते । तथा श्वभ्रस्य गर्तस्य येन केनचित् कचारेणेव स्वादुनेतरणेवाहारेणोदरगर्तस्य पूरणात् श्वभ्रपूरणमित्याख्यायते । ईर्याव्युत्सर्ग- वाकशुद्धयः समितिषु व्याख्याताः । शयनासनविनयशुद्धी तु तपःसु वक्ष्येते । मनःशुद्धिस्तु भावशुद्धिः कर्मक्षयोपशमजनिता मोक्षमार्गरुच्या हितप्रसादा रागाद्युपप्लवरहिता च स्यात् । सैव च सर्वशुद्धीनामुपरि स्फुरति वचन, मन, काय इन आठोंके विषयमें शुद्धिको विस्तारते हुए अपहृत संयमको बढ़ाना चाहिए || ४९|| 1 विशेषार्थ - भिक्षाशुद्धि, ईर्याशुद्धि, शयनासनशुद्धि, विनयशुद्धि व्युत्सर्गशुद्धि, वचनशुद्धि, मनशुद्धि और कायशुद्धि ये आठ शुद्धियाँ हैं । इनमें से भिक्षाशुद्धिका कथन पिण्डशुद्धि में किया गया है । भिक्षाशुद्धि में तत्पर मुनि जो भोजन करता है उसके पाँच नाम हैं - गोचार, अक्षम्रक्षण, उदराग्निप्रशमन, भ्रमराहार और श्वभ्रपूरण । गो अर्थात् बैलके समान जो चार अर्थात् भोजन उसे गोचार कहते हैं। क्योंकि मुनि भोजन देनेवाले दाताके सौन्दर्यपर दृष्टि न डालते हुए, जो कुछ वह देता है, उसे स्वाद उचित सम्मिश्रण आदिकी अपेक्षा न करते हुए खाता है। गाड़ीके पहियोंका आधार जो काष्ठ होता है उसे अक्ष कहते हैं । उसे तेलसे लिप्त करनेको अक्षम्रक्षण कहते हैं। उसके समान भोजनको अक्षम्रक्षण कहते हैं। क्योंकि जैसे व्यापारी जिस किसी भी तेलसे गाड़ीको औंधकर रत्नभाण्डसे भरी हुई गाड़ीको इष्ट देश में ले जाता है उसी प्रकार मुनि निर्दोष आहार के द्वारा आयुको सिंचित करके गुणोंसे भरी हुई शरीररूपी गाड़ीको समाधिकी ओर ले जाता है । तथा, जैसे मालघर में आग लगने पर पवित्र या अपवित्र जलसे उस आगको बुझाते हैं, उसी प्रकार पेट में भूख लगनेपर मुनि सरस या विरस आहारसे उसे शान्त करता है । इसीको उदराग्नि प्रशमन कहते हैं। तथा भ्रमरके समान आहारको भ्रमराहार कहते हैं । जैसे भौंरा फूलों को पीड़ा दिये बिना मधुपान करता है वैसे ही साधु दाता जनोंको पीड़ा दिये बिना आहार ग्रहण करता है । तथा जैसे गड्ढेको जिस किसी भी कचरे से भरा जाता है उसी तरह पेटके गड्ढेको स्वादिष्ट या अस्वादिष्ट आहारसे भरनेको श्वभ्रपूरण कहते हैं । ईर्याशुद्धि, व्युत्सर्गशुद्धि और वचनशुद्धिका कथन समितियोंके कथनमें कर आये हैं । शयनासनशुद्धि और विनय - शुद्धिका कथन तपमें करेंगे। मनशुद्धि भावशुद्धिको कहते हैं । कर्मके क्षयोपशम से वह उत्पन्न होती है । मोक्षमार्ग में रुचि होनेसे निर्मल होती है । रागादिके उपद्रवसे रहित होती है । यह मनशुद्धि या भावशुद्धि सब शुद्धियोंमें प्रधान है क्योंकि आचार के विकासका मूल भावशुद्धि ही है। कहा है- - सब शुद्धियों में भावशुद्धि ही प्रशंसनीय है । क्योंकि स्त्री १. क्तृजनसी - भ. कु. च . । २. 'सर्वासामेव शुद्धीनां भावशुद्धिः प्रशस्यते । अन्यथाऽऽलिङ्गयतेऽपत्यमन्यथाऽऽलिङ्गयते पतिः ॥ [ Jain Education International For Private & Personal Use Only 1 ૪૪૭ ३ ९ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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