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________________ षष्ठ अध्याय ४४३ तत्तद्गोचरभुक्तये निजमुखप्रेक्षीण्यमूनीन्द्रिया ___ण्यासेदु क्रियसेऽभिमानधन भोश्चेतः कयाऽविद्यया। पूर्या विश्वचरी कृतिन् किमिमकै रकैस्तवाशा ततो ___ विश्वैश्वयंचणे सजत्सवितरि स्वे यौवराज्यं भज ॥४२॥ निजमुखप्रेक्षीणि-मनःप्रणिधानाभावे चक्षुरादीनां स्वस्वविषयव्यापारानुपलम्भात् । आसेदुःआसीदति तच्छीलं भवत्युपस्थातृ इत्यर्थः । विश्वचरी-सकलजगत्कवलनपरा। रङ्कः-प्रतिनियतार्थोप- ६ भोगबद्धदुर्वारनिर्बन्धैः । विश्वैश्वयंचणे-समस्तवस्तुविस्ताराधिपत्येन प्रतीते । यथाह 'तुभ्यं नमः परमचिन्मयविश्वकर्ने तुभ्यं नमः परमचिन्मयविश्वभोक्त्रे । तुभ्यं नमः परमचिन्मयविश्वभत्रे, तुभ्यं नमः परमकारणकारणाय ॥' [ ] सजत्-नियाजभक्त्यानुरक्ततया तन्मयोभवत् । सवितरि-जनके । यौवराज्यं-शुद्धस्वानुभूतिलक्षणं कुमारपदम् ।।४२॥ अथ विषयाणामास्वादनक्षणरामणीयकानन्तरात्यन्तकटुकास्वादत्वप्रतिपादनपूर्वकमाविर्भावानन्तरोद्भा- १२ विततृष्णापुनर्नवीभावं तिरोभावं भावयन् पृथग्जनानां तदर्थ स्वाभिमुखं विपदाकर्षणमनुशोचति सुधागवं खर्वन्त्यभिमुखहृषीकप्रणयिनः, क्षणं ये तेऽप्यूध्वं विषमपवदन्त्यङ्ग विषयाः । १५ त एवाविर्भूय प्रतिचितधनायाः खलु तिरो भवन्त्यन्धास्तेभ्योऽप्यहह किम कर्षन्ति विपदः ॥४३॥ _हे अहकारके पुंज मन ! मैं तुमसे पूछता हूँ कि ये इन्द्रियाँ अपने-अपने प्रतिनियत विषयोंका अनुभव करने में स्वाधीन हैं किसी अन्यका मुख नहीं ताकतीं। किस अविद्याने तुम्हें इनका अनुगामी बना दिया है ? हे गुण-दोषोंके विचार और स्मरण आदिमें कुशल मन ! ये बेचारी इन्द्रियाँ तो सम्बद्ध वर्तमान प्रतिनियत अर्थको ही ग्रहण करने में समर्थ होनेसे अति दीन हैं और आपकी तृष्णा तो समस्त जगत्को अपना ग्रास बनाना चाहती है। क्या उसकी पूर्ति इन इन्द्रियोंसे हो सकती है ? इसलिए समस्त वस्तुओंके अधिपति रूपसे प्रसिद्ध अपने पिता परम ब्रह्म में निश्छल भक्तिसे तन्मय होकर यौवराज्य पदको-शुद्ध स्वात्मानुभूतिकी योग्यतारूप कुमार पदको-अर्थात् एकत्व-वितर्क प्रवीचार नामक शुक्लध्यानको ध्याओ ॥४२॥ विशेषार्थ-यदि मनका उपयोग उस ओर नहीं होता तो इन्द्रियाँ अपने विषयमें प्रवृत्त नहीं होतीं। इसीलिए उक्त उलाहना दिया गया है कि उधरसे हटकर मन परमात्माके गुणानुरागमें अनुरक्त होकर शुद्ध स्वात्मानुभूतिकी योग्यता प्राप्त करके स्वयं परमात्मस्वरूपमें रमण कर सके इससे उसकी विश्वको जानने-देखनेकी चिर अभिलाषा पूर्ण हो सकेगी॥४२॥ __ये विषय भोगते समय तो सुन्दर लगते हैं किन्तु बादको अत्यन्त कटु प्रतीत होते हैं । तथा ये तृष्णाको बढ़ाते हैं, जो विषय भोगमें आता है उससे अरुचि होने लगती है और नयेके प्रति चाह बढ़ती है। फिर भी अज्ञानी जन विषयोंके चक्रमें फंसकर विपत्तियोंको बुलाते हैं । यही सब बतलाते हुए ग्रन्थकार अपना खेद प्रकट करते हैं हे मन ! जो विषय ग्रहण करनेको उत्सुक इन्द्रियोंके साथ परिचयमें आनेपर अमृतसे भी मीठे लगते हैं वे भी परमोत्तम विषय उसके बाद ही विषसे भी बुरे प्रतीत होते हैं। तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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