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________________ धर्मामृत ( अनगार) खर्वन्ति-खण्डयन्ति । प्रणयिनः यथास्वं परिचयभाजः। विषयविषयिसन्निकर्षविशेषसूचिका श्रुतियथा 'पुढे सुणोदि सद्दमपुटुं पुण पस्सदे रूवं । गंधं रसं च फासं बद्धं पुढे वियाणादि ॥ [ सर्वार्थ. (१।१९) में उद्धृत ] उद्ध्व-क्षणादनन्तरम् । प्रतिचितधनायाः-प्रतिद्धितगृद्धयः । तिरोभवन्ति-उपभोगयोग्यता६ परिणत्या विनश्यन्ति । कर्षन्ति स्वाभिमुखमानयन्ति ॥४३॥ अथ विषयाणामिहामुत्र चात्यन्तं चैतन्याभिभवनिबन्धनत्वमभिधत्ते किमपीदं विषयमयं विषमतिविषमं पुमानयं येन। प्रसभमभिभूयमानो भवे भवे नैव चेतयते ॥४४॥ वे ही सुन्दर प्रतीत होनेवाले विषय अपनी झलक दिखाकर छिप जाते हैं और विषयतृष्णाको बढा जाते हैं। खेद है कि उन विषयोंके रहस्यको न जाननेवाले विषयान्ध पुरुष उन विषयोंसे ही क्यों विपत्तियोंको अपनी ओर बुलाते हैं ॥४३॥ विशेषार्थ-पूज्यपाद स्वामीने कहा है-भोग-उपभोग प्रारम्भमें शरीर, मन और इन्द्रियोंको क्लेश देते हैं । अन्न आदि भोग्य द्रव्य उत्पन्न करने में किसानोंको कितना कष्ट उठाना पड़ता है इसे सब जानते हैं। तो भोगनेपर तो सुख देते होंगे, सो भी नहीं, क्योंकि इन्द्रियोंके साथ सम्बन्ध होते ही तृष्णा पैदा होती है। कहा है-जैसे-जैसे संकल्पित भोग प्राप्त होते हैं वैसे-वैसे मनुष्योंकी तृष्णा विश्व में फैलती है। यदि ऐसा है तो भोगोंको खूब भोगना चाहिए जिससे तृष्णा शान्त हो । किन्तु भोगनेके बाद विषयोंको छोड़ना शक्य नहीं होता। कितना भी भोगनेपर मनको शान्ति नहीं मिलती। आचार्य वीरनन्दिने कहा है-तृण और काष्ठके ढेरसे अग्नि और सैकड़ों नदियोंसे समुद्र भले ही तृप्त हो जाये किन्तु कामसुखसे पुरुषकी तृप्ति नहीं होती। कर्मकी यह बलवत्ता अचिन्त्य है। ऐसे कामभोगको कौन बुद्धिमान सेवन करता है ? शायद कहा जाये कि 'तत्त्वके ज्ञाता भी भोग भोगते सुने जाते हैं तब यह कहना कि कौन बुद्धिमान् विषयोंको भोगता है' कैसे मान्य हो सकता है। उक्त कथनका तात्पर्य यह है कि चारित्रमोहके उदयसे यद्यपि तत्त्वज्ञानी भी भोगोंका सेवन करते हैं किन्तु हेय मानते हुए ही सेवन करते हैं। जब मोहका उदय मन्द हो जाता है तो ज्ञान भावना और वैराग्यसे इन्द्रियोंको वशमें करके विरक्त हो जाते हैं ॥४३॥ आगे कहते हैं कि ये विषय इस लोक और परलोकमें चैतन्यशक्तिके अभिभवमें कारण हैं यह विषयरूपी विष कुछ अलौकिक ही रूपसे अत्यन्त कष्टदायक है क्योंकि उससे १. 'आरम्भे तापकान् प्राप्तावतृप्तिप्रतिपादकान् । ___ अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान् कामं कः सेवते सुधीः ॥--इष्टोप., १७ श्लो.। २. 'अपि संकल्पिताः कामाः संभवन्ति यथा यथा। तथा तथा मनुष्याणां तृष्णा विश्वं प्रसर्पति' ॥[ ३. 'दहनस्तृणकाष्ठसंचयैरपि तृप्येदुदधिर्नदीशतैः। नतु कामसुखैः पुमानहो बलवत्ता खलु कापि कर्मणः ॥--चन्द्रप्रभचरित श७२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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