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________________ ६ ४४२ धर्मामृत ( अनगार) अथान्तरात्मानः परमाभिजातत्वाभिमानमुद्बोधयन्नुपालम्भगी शिक्षा प्रयच्छन्नाहपुत्रो यद्यन्तरात्मन्नसि खलु परमब्रह्मणस्तक्किमक्ष लौल्याद्यद्वल्लतान्ताद्रसमलिभिरसृग-रक्तपाभित्रणाद्वा। पायं पायं यथास्वं विषयमघमयैरेभिरुद्गीर्यमाणं भुजानो व्यात्तरागारतिमुखमिमकं हंस्यमा स्वं सवित्रा ॥४॥ लतान्तात्-पुष्पात् । रक्तपाभिः-जलौकाभिः । इमकं-कुत्सितमिमं । सवित्रा-परमब्रह्मणा सह । अन्तरात्मनो ह्यात्मघातो बहिरात्मपरिणतिः, परमात्मघातश्च शुद्धस्वरूपप्रच्यावनपूर्वकं रागद्वेषापादनम् । तथा चोक्तम् 'चित्ते बद्ध बद्धो मुक्के मुक्को य णत्थि संदेहो। अप्पा विमलसहावो मइलिज्जइ मइलिए चित्ते ॥' [ ] ॥४१॥ अथ इन्द्रियद्वारैरनाद्यविद्यावासनावशादसकृदुद्धिद्यमानदुराशयस्य चित्तस्य विषयाभिष्वङ्गमुत्सारयन् १२ परमपदप्रतिष्ठायोग्यताविधिमुपदिशति आश्चर्य है। अर्थात् पापकर्म के निमित्तसे द्रव्य मनमें विलास करनेवाला सकल विकल्पोंसे शून्य भी चेतन मनके द्वारा नाना विकल्प जालोंमें फंस जाता है। इसीलिए एक कविने मनकी दुष्टता बतलाते हुए कहा है-'मनको हृदय रूपी सरोवरमें उत्पन्न हुआ आठ पाँखुड़ीका संकुचित कमल कहा है, जो सूर्यके तेजसे तप्त होनेपर तत्काल खिल उठता है। ऐसा यह दुष्ट है' ॥४०॥ आगे अन्तरात्माके परम कुलीनताके अभिमानको जाग्रत् करते हुए ग्रन्थकार उलाहनेके साथ शिक्षा देते हैं हे अन्तरात्मा-मनके दोष और आत्मस्वरूपके विचार में चतुर चेतन ! यदि तू परम ब्रह्म परमात्माका पुत्र है तो जैसे भौंरा अति आसक्तिसे फूलोंका रस पीकर उसे उगलता है या जैसे जोंक घावसे रक्त पीकर उसे उगलती है, उसी तरह पापमय इन इन्द्रियों के द्वारा अति आसक्ति पूर्वक यथायोग्य भोग भोगकर छोड़े हुए, पापमय इन नीच विषयोंको राग-द्वेषपूर्वक भोगते हुए अपने पिताके साथ अपना घात मत करो ॥४१॥ . विशेषार्थ-जो उत्पन्न होकर अपने वंशको पवित्र बनाता है उसे पुत्र कहते हैं। यह पुत्र शब्दका निरुक्तिगम्य अर्थ है । अन्तरात्मा परमात्माका ही पुत्र है अर्थात् अन्तरात्मा और परमात्माकी जाति-कुल आदि एक ही है। अन्तरात्मा ही परमात्मा बनता है । अतः परमात्माका वंशज होकर अन्तरात्मा इन्द्रियों के चक्रमें पड़कर अपनेको भूल गया है। वह इस तरह अपना भी घात करता है और परमात्माका भी घात करता है। अन्तरात्माका आत्मघात है बहिरात्मा बन जाना । भोगासक्त प्राणी शरीर और आत्मामें भेद नहीं करके शरीरको ही आत्मा मानता है। यही उसका घात है। और शुद्ध स्वरूपसे गिराकर रागी-द्वेषी मानना परमात्माका घात है । कहा है-'चित्तके बद्ध होनेपर आत्मा बँधता है और मुक्त होनेपर मुक्त होता है इसमें सन्देह नहीं है। क्योंकि आत्मा तो स्वभावसे निर्मल है, चित्तके मलिन होनेपर मलिन होता है। ऐसे निर्मल आत्मामें राग-द्वेषका आरोप करना ही उसका घात है ।।४।। अनादिकालसे लगी हुई अविद्याकी वासनाके वशसे चित्तमें इन्द्रियोंके द्वारा बारम्बार दुराशाएँ उत्पन्न हुआ करती हैं। अतः चित्तकी विषयोंकी प्रति आसक्तिको दूर करते हुए परमपद में प्रतिष्ठित होनेकी योग्यताकी विधि बतलाते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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