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________________ ४३८ धर्मामृत ( अनगार) समरसाप्तये-उपेक्षासंयमलब्ध्यर्थम् । खं-स्पर्शनादीन्द्रियम् । अर्थात्-स्पर्शादिविषयात् । मनस्तुद:-रागद्वेषोद्भावनेन चित्तक्षोभकरान् । दवयन्-दूरीकुर्वन् । इन्द्रियग्रहणायोग्यं कुर्वन्नित्यर्थः । ३ अपरेण-गुर्वादिना । प्राणितः-प्राणिभ्यः । सुपिच्छेन-पञ्चगुणोपेतप्रतिलेखनेन । तदुक्तम् 'रजसेदाणमगहणं महव सूकूमालदा लहत्त च। जत्थेदे पंचगुणा तं पडिलिहिणं पसंसति ॥' [ मूलाचार, गा. ९१० ] ६ स्वतः-आत्मशरीरतः । तदुपमेन-मृदुवस्त्रादिना ॥३८॥ वहाँसे अलग कर लेना अर्थात् स्वयं उस स्थानसे हट जाना उत्कृष्ट प्राणिसंयमरूप अपहृत संयम है। अथवा पीछीसे उन प्राणियोंकी प्रतिलेखना करना मध्यमप्राणि संयमरूप अपहृत संयम है। अथवा पीछीके अभावमें कोमल वस्त्र आदिसे उन जीवोंकी प्रति लेखना करना जघन्य प्राणिसंयमरूप अपहृत संयम है ॥३८॥ विशेषार्थ-ईर्यासमिति आदिका पालन करनेवाला मुनि उसके पालनके लिए जो प्राणियों और इन्द्रियोंका परिहार करता है उसे संयम कहते हैं। एकेन्द्रिय आदि प्राणियोंको पीड़ा न देना प्राणिसंयम है और इन्द्रियोंके विषय शब्दादिमें रागादि न करना इन्द्रिय संयम है। अकलंक देवने लिखा है-संयमके दो प्रकार हैं-उपेक्षा संयम और अपहृत संयम । देश और कालके विधानको जाननेवाले, दूसरे प्राणियोंको बाधा न पहुँचानेवाले तथा तीन गुप्तियोंके धारक मुनिके राग-द्वेषसे अनासक्त होनेको उपेक्षा संयम कहते हैं । अपहृत संयमके तीन भेद हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । प्रासुक वसति और आहार मात्र जिनका साधन है तथा ज्ञान और चारित्र स्वाधीन नहीं हैं, परावलम्बी हैं, वे मुनि बाहरी जीवोंके अचानक आ जानेपर यदि अपनेको वहाँसे हटाकर जीवरक्षा करते हैं अर्थात् उस जीवको किंचित् भी बाधा न पहुँचाकर स्वयं वहाँसे अलग हो जाते हैं तो यह उत्कृष्ट है । कोमल उपकरणसे उसे हटा देनेसे मध्यम है और यदि उसको हटानेके लिए साधु किसी दूसरे उपकरणकी इच्छा करता है तो जघन्य है। जैसे ये तीन भेद प्राणिसंयमके हैं, ऐसे ही तीन भेद इन्द्रिय संयमके भी जानना । राग-द्वेष उत्पन्न करानेवाले पदार्थोंसे इन्द्रियोंको ही विमुख कर देना, उत्कृष्ट, उस पदार्थको ही स्वयं दूर कर देना मध्यम और किसी अन्यसे उस पदार्थको दूर करा देना जघन्य इन्द्रिय संयम है। श्वेताम्बर परम्परामें इसी संयमको सत्तरह भेदोंमें विभाजित किया है-पृथिवीकायिक संयम, अपकायिक संयम, तेजस्कायिक संयम, वायुकायिक संयम, वनस्पतिकायिक संयम, द्वीन्द्रिय संयम, त्रीन्द्रिय संयम, चतुरिन्द्रय संयम, पंचेन्द्रिय संयम, प्रेक्ष्य संयम, उपेक्ष्य संयम, अपहृत्य संयम, प्रमृज्य संयम, कायसंयमे, वाक् संयम, मनःसंयम और उपकरण संयम । [तत्त्वार्थ. भाष्य ९/६] । १. 'संयमो हि द्विविधः--उपेक्षासंयमोऽपहृतसंयमश्चेति । देशकालविधानज्ञस्य परानुपरोधेन उत्कृष्टकायस्य त्रिधागुप्तस्य रागद्वेषानभिष्वंगलक्षण उपेक्षासंयमः। अपहृतसंयमस्त्रिविधः-उत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्चेति । तत्र प्रासुकवसत्याहारमात्रसाधनस्य स्वाधीनेतरज्ञानचरणकरणस्य बाह्यजन्तुपनिपाते आत्मानं ततोऽपहृत्य जीवान् परिपालयत उत्कृष्टः, मृदुना प्रमृज्य जीवान् परिहरतो मध्यमः, उपकरणान्तरेच्छया जघन्यः।-तत्त्वार्थवातिक ९।६।१५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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