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________________ षष्ठ अध्याय ४३७ अथ संयमलक्षणं धर्म व्याचिख्यासुस्तद्धदयोरुपेक्षापहृतसंयमयोर्मध्ये केचिदुत्तरं समतिषु वर्तमानाः पालयन्तीत्युपदिशति प्राणेन्द्रियपरीहाररूपेऽपहृतसंयमे । शक्यक्रियप्रियफले समिताः केऽपि जाग्रति ॥३७॥ प्राणिपरीहार:-एकेन्द्रियादिजीवपीडावर्जनम् । इन्द्रियपरीहारः- स्पर्शनादीन्द्रियानिन्द्रियविषयेष्वनभिष्वङ्गः । तद्विषया यथा 'पंच रस पंचवण्णा दो गंधा अट्ठ फास सत्त सरा। __ मणसहिद अट्ठवीसा इन्दियभेया मुणेयव्वा ।' [ गो. जीव., गा. ४७८ ] फलं--प्रयोजनमुपेक्षा संयमलक्षणम् । जाग्रति-प्रमादपरिहारेण वर्तते ॥३७॥ अथ द्विविधस्याप्यपहृतसंयमस्योत्तममध्यमजघन्यभेदाः(-दात्) त्रैविध्यमालम्बमानस्य भावनायां प्रयोजयति सुधीः समरसाप्तये विमुखयन् खमर्थान्मन स्तुदोऽथ दवयन् स्वयं तमपरेण वा प्राणितः। तथा स्वमपसारयन्नुत नुदन सुपिच्छेन तान् स्वतस्तदुपमेन वाऽपहृतसंयमं भावयेत् ॥३८॥ इस प्रकार सत्यधर्मका कथन समाप्त हुआ। अब संयम धर्मका कथन करना चाहते हैं। उसके दो भेद हैं-उपेक्षा संयम और अपहृत संयम । उनमें से अपहृत संयमको समितियोंमें प्रवृत्ति करनेवाले साधु पालते हैं, ऐसा उपदेश करते हैं त्रस और स्थावर जीवोंको कष्ट न पहुँचाना और स्पर्शन आदि इन्द्रियों तथा मनका अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त न होना यह अपहृत संयम है। इस अपहृत संयमका पालन शक्य है उसे किया जा सकता है तथा उसका फल उपेक्षा संयम भी इष्ट है । इस तरह अपहृत संयमका पालन शक्य होनेसे तथा उसका फल इष्ट होनेसे आजकल समितियोंमें प्रवृत्ति करनेवाले मुनि प्रमाद त्यागकर अपहृत संयममें जागरूक रहते हैं। अर्थात् समितियोंका पालन करनेसे इन्द्रिय संयम और प्राणी संयमरूप अपहृत संयमका पालन होता है और उससे उपेक्षा संयमकी सिद्धि होती है ॥३७॥ दोनों ही प्रकारके अपहृत संयमके उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन-तीन भेद हैं। उनके अभ्यासकी प्रेरणा करते है विचारशील मुमुक्षको उपेक्षा संयमकी प्राप्तिके लिए अपहृत संयमका अभ्यास करना चाहिए । रागद्वेषको उत्पन्न करके मनको क्षुब्ध करनेवाले पदार्थोंसे इन्द्रियको विमुख करना उत्कृष्ट इन्द्रिय संयमरूप अपहृत संयम है। उक्त प्रकारके पदार्थको स्वयं दूर करके इन्द्रियके ग्रहणके अयोग्य करना मध्यम इन्द्रिय संयमरूप अपहृत संयम है और आचार्य आदिके प्रकारके पदार्थको दर कराकर उसे इन्द्रिय ग्रहणके अयोग्य करना जघन्य इन्द्रिय संयमरूप अपहृत संयम है । तथा स्वयं उपस्थित हुए प्राणियोंकी रक्षाकी भावनासे अपनेको १. न्यविषया भ. कु. च., गो. जी.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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