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________________ षष्ठ अध्याय ४३९ अथास्वतन्त्रं बहिर्मन इत्युररीकृत्य स्वस्वविषयापायप्राचण्ड्यप्रदर्शनपरैः स्पर्शमादीन्द्रियैरेकशः सामर्थ्यप्रत्यापादनाज्जगति स्वैरं त्वरमाणस्य मनसो निरोधं कर्तव्यतयोपदिशति स्वामिन् पृच्छ वनद्विपान्नियमितान्नाथाश्रु पिल्ला झषीः, पश्याधीश विदन्त्यमी रविकराः प्रायः प्रभोऽग्नेः सखा । कि दूरेऽधिपते व पक्वणभुवां दौः स्थित्य मित्येकशः, प्रत्युतप्रभुशक्ति खैरिव जगद्धावन्निरुन्ध्यान्मनः ॥ ३९ ॥ नियमितान् - बद्धान् । अत्र हस्तिनोस्पर्शदोषो व्यङ्गयः । एवमुत्तरत्रापि । यथाक्रमं रसगन्धवर्णशब्दाश्चिन्त्याः । अश्रुपिल्लाः - अश्रुभिः क्लिन्ननेत्राः । अत्र वडिशरसास्वादन लंपटपतिमरणदुःखं व्यङ्ग्यम् । विदन्तीत्यादि । अत्र कमलकोशगन्धलुब्धभ्रमरमरणं व्ययम् । अग्नेः सखा - वायुः । अत्र रूपांलोकनोत्सुकपतङ्गमरणं व्यङ्गयम् । पक्वणभुवां -शबराणाम् । अत्र गीतध्वनिलुब्धमृगवधो व्यङ्ग्यः । एकश:एकैकेन । प्रत्युप्तप्रभुशक्ति - प्रतिरोपिता प्रतिविधेयसामर्थ्यम् । निरुन्ध्यात् - नियन्त्रयेत् मारयेद्वा । स्वच्छन्द मन बाह्य विषयोंकी ओर दौड़ता है यह मानकर ग्रन्थकार अपने-अपने विषयोंमें आसक्तिसे होनेवाले दुःखोंकी उग्रताका प्रदर्शन करनेवाली स्पर्शन आदि इन्द्रियोंमेंसे प्रत्येकके द्वारा अपनी शक्तिको जगत् में रोकनेवाले स्वच्छन्द मनको रोकनेका उपदेश देते हैं सबसे प्रथम स्पर्शन इन्द्रिय कहती है- हे स्वामिन्! अपने मुँह अपनी तारीफ करना कुलीनोंको शोभा नहीं देता, अतः आप स्तम्भों में बँधे हुए जंगली हाथियोंसे पूछिए । रसना इन्द्रिय कहती है - हे नाथ ! उस रोती हुई मछली को देखें । घ्राणेन्द्रिय कहती है- हे मालिक ! ये सूर्य की किरणें प्रायः मेरी सामर्थ्यको जानती हैं । चक्षु इन्द्रिय कहती है- हे स्वामी ! यह वायु कुछ दूर नहीं है इसीसे मेरी शक्ति जान सकते हैं । श्रोत्रेन्द्रिय कहती है - हे स्वामी ! जो भी आदि हैं क्या कहीं आपने इन्हें कष्टसे जीवन बिताते देखा है ? इस प्रकार मानो इन्द्रियोंके द्वारा अपनी प्रभुशक्तिको प्रतिरोपित करके जगत् में दौड़ते हुए मनको रोकना चाहिए ||३९|| विशेषार्थ - - प्रवचनसार गाथा ६४ की टीकामें आचार्य अमृतचन्द्रजीने 'इन्द्रियाँ स्वभाव से ही दुःखरूप हैं' यह बतलाते हुए कहा है कि जिनकी ये अभागी इन्द्रियाँ जीवित हैं उनका दुःख औपाधिक नहीं है, स्वाभाविक है, क्योंकि उनकी विषयोंमें रति देखी जाती है । जैसे, हाथी बनावटी हथिनीके शरीरको स्पर्श करनेके लिए दौड़ता है और पकड़ लिया जाता है । इसी तरह बंसीमें लगे मांसके लोभसे मछली फँस जाती है । भ्रमर कमलका रस लेने में आसक्त होकर सूर्यके डूब जानेपर कमलमें ही बन्द हो जाता है। पतंगे दीपककी ओर दौड़कर जल मरते हैं । शिकारीकी गीतध्वनिको सुनकर हिरण मारे जाते हैं। इस तरह प्रत्येक इन्द्रिय मनकी प्रभुशक्तिको प्रतिरोपित करती है। इसी कथनको ग्रन्थकारने व्यंग्य के रूपमें बड़े सुन्दर ढंग से उपस्थित किया है । इन्द्रियाँ अपने मुँह अपनी तारीफ नहीं करतीं क्योंकि यह कुलीनों का धर्म नहीं है । अतः प्रत्येक इन्द्रिय अपनी सामर्थ्यको व्यंग्य के रूप में प्रदर्शित करती है । स्पर्शन कहती है कि मेरी सामर्थ्य जानना हो तो स्तम्भसे बँधे जंगली हाथीसे पूछो। अर्थात् जंगली हथिनीका आलिंगन करनेकी परवशतासे ही वह बन्धनमें पड़ा है । रसना कहती है कि मेरी सामर्थ्य रोती हुई मछली से पूछो अर्थात् बंसीमें लगे मांसको खानेकी लोलुपता के कारण ही उसका मत्स्य पकड़ लिया गया है । प्राणेन्द्रिय कहती है कि मेरी सामर्थ्य सूर्य की किरणोंसे Jain Education International For Private & Personal Use Only ३ ६ ९ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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