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________________ षष्ठ अध्याय ४२३ ६ अथ मानविजयोपायमधस्तनभूमिकायां सद्वतैः कर्मोच्छेदार्थमभिमानोत्तेजनं चोपदिशतिप्राच्यानैदंयुगीनानथ परमगुणग्रामसामृद्धयसिद्धा नद्धा ध्यायनिरुन्ध्यान्म्रदिमपरिणतः शिर्मदं दुर्मदारिम् । छेत्तु दौर्गत्यदुःखं प्रवरगुरुगिरा संगरे सवतास्त्रैः, क्षेप्तु कर्मारिचक्रं सुहृदमिव शितैःपयेद्वाभिमानम् ॥१४॥ शिर्मदं-मर्मदं मर्मव्यथकम् । दौर्गत्यं-दुर्गतिभावं दारिद्रय च। संगरे-प्रतिज्ञायां संग्रामे च ॥१४॥ अथ मार्दवभावनाभिभूतस्यापि गर्वस्य सर्वथोच्छेदः शुक्लध्यानप्रवृत्त्यैव स्यादित्युपदिशति मार्दवाशनिनिल्नपक्षो मायाक्षितिं गतः । योगाम्बुनैव भेद्योऽन्तर्वहता गर्वपर्वतः ॥१५॥ नीचेकी भूमिकामें मानको जीतनेका उपाय बतलाते हुए समीचीन व्रतोंके द्वारा कर्मोंका उच्छेद करनेके लिए अभिमानको उत्तेजित करनेका उपदेश देते हैं मार्दव धर्मसे युक्त होकर, परम गुणोंके समूहकी समृद्धिके कारण प्रसिद्ध पूर्व पुरुषोंका और इस युगके साधुओंका तत्त्वतः ध्यान करते हुए मर्मभेदी दुःख देनेवाले अहंकाररूपी शत्रुको दूर हटाना चाहिए । अथवा दुर्गति सम्बन्धी दुःखका विनाश करने के लिए और निरतिचार व्रतरूपी तीक्ष्ण अस्त्रोंके द्वारा ज्ञानावरण आदि कर्म शत्रुओंके समूहको भगाने के लिए सद्गुरुके वचनोंसे प्रतिज्ञामें स्थिर होकर मित्रकी तरह अभिमानको उत्तेजित करना चाहिए ॥१४॥ विशेषार्थ-अहंकार शत्रुकी तरह बहुत अनिष्ट करनेवाला होनेसे शत्रुके तुल्य है। अतः उसके रोकनेका एक उपाय तो यह है कि जो पूर्व पुरुष या वर्तमान साधु ज्ञान, विनय, दया, सत्य आदि गुणोंसे सम्पन्न हैं उनके गुणोंका ध्यान करें। दूसरा उपाय इस प्रकार है-जैसे कोई वीर योद्धा दारिद्रयके दुःखोंको दूर करनेके लिए अपने मन्त्रियोंके कहनेसे युद्ध के विषय में तीक्ष्ण शस्त्रोंसे प्रहार करनेके लिए तत्पर शत्रु सैन्यको नष्ट करनेकी इच्छासे अपने मित्रको बढ़ावा देता है उसी तरह साधु दुर्गतिके दुःखको दूर करने के लिए सद्गुरुके वचनोंसे प्रतिज्ञा लेकर कर्मोके क्षयमें समर्थ निर्मल अहिंसा आदि व्रतोंके द्वारा कर्मरूपी शत्रुओंके समूहका विनाश करनेके लिए अभिमानको उत्तेजित करे कि मैं अवश्य कर्मोंका क्षपण करूँगा। नीचेकी भूमिकामें इस प्रकारका अभिमान मुमुक्षुके लिए कर्तव्य बतलाया है । सारांश यह है कि यद्यपि अहंकार या मद या गर्व या अभिमान बुरे हैं किन्तु अहंकारके कारण जो कर्मशत्रु हैं उनको नष्ट करनेका संकल्परूप अभिमान बुरा नहीं है। नीचेकी अवस्थामें इस प्रकारका संकल्प करके ही साधु अहंकारका मूलसे विनाश करने में समर्थ होता है ॥१४॥ आगे कहते हैं कि यद्यपि मार्दव धर्मकी भावनासे गर्व दब जाता है किन्तु उसका सर्वथा विनाश शुक्लध्यानसे ही होता है मार्दवरूपी वज्रके द्वारा पंखोंके कट जानेपर मायारूपी पृथ्वीपर पड़े हुए गर्वरूपी पर्वतका भेदन अन्तरंगमें बहते हुए योगरूपी जलसे ही होता है ॥१५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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