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________________ ४२४ धर्मामृत ( अनगार) अवर्णमायेत्यादि । क्षपकश्रेण्यां हि मायासंज्वलने प्रक्षिप्य शुक्लध्यानविशेषेण मानः किलोन्मूल्यते ॥१५॥ अथ मानान्महतामपि महती स्वार्थक्षतिमालक्षयंस्तदुच्छेदाय मार्दवभावनां ममक्षोरवश्यकर्तव्यतयोपदिशति मानोऽवर्णमिवापमानमभितस्तेनेऽर्ककीर्तेस्तथा, . मायाभूतिमचीकरत्सगरजान् षष्टि सहस्राणि तान् । तत्सौनन्दमिवादिराट् परमरं मानग्रहान्मोचयेत्, तन्यन्मार्दवमाप्नुयात् स्वयमिमं चोच्छिद्य तद्वच्छिवम् ॥१६॥ ९ अवर्ण-अयशः शोभाभ्रंशं वा । तथा-तेन आर्षप्रसिद्धेन प्रकारेण । मायाभूति-अवास्तवभस्म । अचीकरत्-मणिकेतुनाम्ना देवेन कारयतिस्म । सगरजान्-सगरचक्रवर्तिपुत्रान् । षष्टिं सहस्राणि पर्दो सहस्रपत्रव्यपदेशवत् प्रायिकमेतत् । तेन भीमभगीरथाभ्यां विनापि तद्भस्मीकरणे षष्टिसहस्रसंख्यावचनं न विशेषार्थ-आशय यह है कि जैसे इन्द्रके द्वारा छोड़े गये वज्रके प्रहारसे पक्षोंके कट जानेपर भूतलपर गिरे हुए पर्वतको उसके मध्यसे बहनेवाला जल ही विदारित कर सकता है वैसे ही मार्दव भावनाके द्वारा यद्यपि मान कपायकी शक्ति संज्वलन मान कषायरूप हो जाती है किन्तु उसका विनाश आत्मामें सतत वर्तमान पृथक्त्व वितर्क विचार नामक शुक्लध्यानके द्वारा ही होता है। क्योंकि क्षपक श्रेणीमें शुक्लध्यानके द्वारा मान कपायको माया संज्वलन कषायमें प्रक्षेपण करके उसकी सत्ताका विनाश किया जाता है ॥१५॥ मानसे महापुरुषोंके भी स्वार्थकी महती क्षति होती है यह बतलाते हुए उसके विनाशके लिए मुमुक्षुको मार्दव भावना अवश्य करनेका उपदेश देते हैं मानसे सम्राट् भरतके पुत्र अर्ककीर्तिका सब ओर अपयशके साथ अपमानका विस्तार हुआ। यह बात आगममें प्रसिद्ध है। तथा मानके कारण मणिकेतु नामक देवने सगरके साठ हजार पुत्र-पौत्रोंको मायामयी भस्मके रूपमें परिणत कर दिया। इसलिए जैसे सम्राट भरतने बाहुबलि कुमारको मानरूपी भूतसे छुड़ाया उसी तरह साधुको भी चाहिए कि वह किसी कारणसे अभिमानके चंगुल में फंसे दूसरे मनुष्यको शीघ्र ही अहंकाररूपी भूतके प्रभावसे छुड़ाने तथा मार्दव भावनाको भाते हुए भरत सम्राटकी तरह स्वयं भी इस मानका उच्छेदन करके शिवको-अभ्युदय और मोक्षको प्राप्त करे ।।१६।।। विशेषार्थे-सहापुराणमें कहा है कि काशिराज अकम्पनने अपनी पुत्री सुलोचनाका स्वयंवर किया। सुलोचनाने कौरव पति जयकुमारके गलेमें वरमाला डाली। इसपर सम्राट भरतका पुत्र अर्ककीर्ति उत्तेजित हो गया और उसने अहंकारसे भरकर जयकुमारके साथ युद्ध किया। उसमें वह परास्त हुआ और सब ओर उसका अपयश फैला। सगर चक्रवर्तीके साठ हजार पुत्र-पौत्र थे। वे बड़े अभिमानी थे और चक्रवर्तीसे कोई काम करनेकी अनुज्ञा मॉगा करते थे। एक बार चक्रवतीने उन्ह आज्ञा दी कि कैलास पर्वतपर सम्राट भरतके द्वारा बनवाये गये जिनालयोंकी रक्षाके लिए उसके चारों ओर खाई खोदकर गंगाके पानीसे भर दिया जाये। जब वे इस काममें संलग्न थे, एक देवने उन्हें अपनी मायासे भस्म सरीखा कर दिया। पीछे उन्हें जीवित कर दिया। ये दोनों कथानक उक्त पुराणमें वर्णित हैं। अतः साधुका कर्तव्य है कि जैसे सम्राट् भरतने बाहुबलीको अहंकारसे मुक्त कराकर कल्याणके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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