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________________ Prem ३ ४२२ धर्मामृत ( अनगार ) अथ तत्तादृगपायप्रायमानोपमर्दनचणं मार्दवमाशास्ते भद्रं मार्दववज्राय येन निर्लनपक्षतिः । पुनः करोति मानाद्रि!त्थानाय मनोरथम् ॥१२॥ मार्दवं-जात्याद्यतिशयवतोऽपि सतस्तत्कृतमदावेशाभावात परप्रयुक्तपरिभवनिमित्ताभिमानाभावास्माननिहरणम् । पक्षति:-पक्षमलम् । तच्चेह सामर्थ्य विशेषः ॥१२॥ अथ गर्वः सर्वथाऽप्यकर्तव्य इत्युपदेष्टुं संसारदुरवस्थां प्रथयति क्रियेत गर्वः संसारे न श्रूयेत नृपोऽपि चेत् । दैवाज्जातः कृमिर्गथे भृत्यो नेक्ष्येत वा भवन् ॥१३॥ स्पष्टम् ॥१३॥ विशेषार्थ-अहंकारके वशीभूत हुआ कुबुद्धि मनुष्य ऐसे पाप कर्मका बन्ध करता है जिसके फलस्वरूप उसे चिरकाल तक निगोद आदि नीच गतियोंके दुःख भोगने पड़ते हैं । कहा है-'जाति, रूप, कुल, ऐश्वर्य, शील, ज्ञान, तप और बलका अहंकार करनेवाला मनुष्य नीच गोत्रका बन्ध करता है' ॥११॥ आगे उक्त प्रकारके दुःखोंके देनेवाले मानका मर्दन करनेमें समर्थ मार्दव धर्मकी प्रशंसा करते हैं ___ उस मार्दवरूपी वनका कल्याण हो, जिसके द्वारा परोंके मूलके अर्थात् शक्तिविशेषके मूलसे छिन्न हो जानेपर मानरूपी पर्वत पुनः उठनेका मनोरथ नहीं करता ॥१२॥ ___विशेषार्थ-कवि-परम्परा ऐसी है कि पहले पर्वतोंके पंख होते थे। इन्द्रने अपने वज्रसे उन्हें काट डाला। तबसे पर्वत स्थिर हो गये। उसीको दृष्टिमें रखकर प्रन्थकारने मानरूपी पर्वतके पंख काटनेवाले मार्दव धर्मको वज्रकी उपमा दी है। जाति आदिसे विशिष्ट होते हुए भी उसके मदके आवेशके अभावसे तथा दूसरोंके द्वारा तिरस्कार किये जानेपर भी अभिमानका अभाव होनेसे मानके पूरी तरहसे हटनेको मार्दव धर्म कहते हैं ॥१२॥ गर्व सर्वथा नहीं करना चाहिए, इस बातका उपदेश करनेके लिए संसारकी दुरवस्था बतलाते हैं अपने द्वारा उपार्जित अशुभ कर्मके उदयसे राजा भी मरकर विष्ठेका कीड़ा हुआ, यदि यह बात प्रामाणिक परम्परासे सुनने में न आती, अथवा आज भी राजाको भी नौकरी करते हुए न देखते तो संसारमें गर्व किया जा सकता है ॥१३।।। विशेषार्थ-प्राचीन आख्यानोंमें शुभाशुभ कर्मोंका फल बतलाते हुए एक राजाकी कथा आती है कि वह मरकर अपने ही पाखाने में कीड़ा हुआ था। जब राजा भी मरकर विष्ठेका कीड़ा हो सकता है तब राजसम्पदा आदि पाकर उसका अभिमान करना व्यर्थ है। यह तो शास्त्रीय आख्यान है । वर्तमान काल में फ्रांसके राजाका सिर जनताके द्वारा काटा गया। रूसमें क्रान्ति होनेपर वहाँके राजाको मार डाला गया और उसके परिवारको आजीविकाके लिए भटकना पड़ा। भारतमें स्वतन्त्रताके बाद राजाओंके सब अधिकार समाप्त कर दिये गये और उनकी सब शान-शौकत धूलमें मिल गयी। ये सब बातें सुनकर और देखकर भी जो घमण्ड करता है उसकी समझपर खेद होता ही है ।।१३।। १. 'जातिरूपकुलैश्वर्यशीलज्ञानतपोबलः । कुर्वाणोऽहं कृति नीचं गोत्रं बध्नाति मानवः' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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