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________________ षष्ठ अध्याय ४२१ अथाहङ्कारादनर्थपरम्परां कथयति गर्वप्रत्यग्नगकवलिते विश्वदीपे विवेक___ त्वष्टर्युच्चैः स्फुरितदुरितं दोषमन्देहवृन्दैः । सत्रोवृत्ते तमसि हतदृग जन्तुराप्तेषु भूयो, भूयोऽभ्याजत्स्वपि सजति ही स्वैरमुन्मार्ग एव ॥१०॥ प्रत्यग्नगः-अस्तशैलः । विवेकत्वष्टरि-कृत्याकृत्यविभागज्ञानादित्ये । तमसि-मोहान्धकारे च । ६ अभ्याजत्सु-निवारयत्सु । स्वैरं-स्वच्छन्दम् । ध्वान्तछादितदृष्टिपक्षे तु स्वेन आत्मना न परोपदेशेन, इरे गमने । मुत्--प्रोतिर्यस्यासो स्वरमुत् । काकुव्याख्यायां मार्गे एव सजति न सजति । किं तर्हि अमार्गेऽपि लगतीत्यर्थः ॥१०॥ अथाहङ्कार-जनितदुष्कृतविपक्त्रिममत्युग्रमपमानदुःखमाख्याति-- जगद्वैचित्र्येऽस्मिन् विलसति विधौ काममनिशं, । स्वतन्त्रो न वास्मीत्यभिनिविशतेऽहंकृतितमः। कुधीर्येनादत्ते किमपि तदघं यद्रसवशा चिरं भुङ्क्ते नीचैर्गतिजमपमानज्वरभरम् ॥११॥ स्वतन्त्रः-कर्ता । क्व ? इष्टेऽनिष्टे वाऽर्थे । अपमानः-महत्त्वहानिः ॥११॥ अहंकारसे होनेवाली अनर्थपरम्पराको कहते हैं बड़ा खेद है कि जगत्को प्रकाशित करनेके लिए दीपकके समान विवेक रूपी सूर्य जब अहंकाररूपी अस्ताचलके द्वारा ग्रस लिया जाता है और राग द्वेष रूपी राक्षसोंके समूहके साथ मोहरूपी अन्धकार बेरोक-टोक फैल जाता है जिसमें चोरी, व्यभिचार आदि पाप कर्म अत्यन्त बढ़ जाते हैं, तब प्राणी दृष्टिहीन होकर बारंबार गुरु आदिके रोकनेपर भी स्वच्छन्दतापूर्वक उन्मार्गमें ही प्रवृत्त होता है ॥१०॥ विशेषार्थ-क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है इस प्रकारके ज्ञानको विवेक कहते हैं । इस विवेकको अहंकार उसी तरह ग्रस लेता है जैसे अस्ताचल सूर्यको ग्रस लेता है। जैसे सूर्यके छिप जानेपर अन्धकार फैलता है उसमें राक्षस गण विचरण करते हैं । पाप कर्म करनेवाले चोर, व्यभिचारी आदि स्वच्छन्द होकर अपना कर्म करते हैं। ऐसे रात्रिके समयमें मनुष्यको मार्ग नहीं सूझता। उसी तरह जब मनुष्यके विवेकको अहंकार ग्रस लेता है तो मनुष्य में मोह बढ़ जाता है उसकी सम्यग्दृष्टि मारी जाती है। गुरु बार-बार उसे कुमार्गमें जानेसे रोकते हैं । किन्तु वह कुमागमें ही आसक्त रहता है । अतः अहंकार मनुष्यको कुमार्गगामी बनाता है ॥१०॥ आगे अहंकारसे होनेवाले पाप कर्म के उदयके फल रूप अत्यन्त उग्र अपमानके दुःखको कहते हैं स्थावर जंगम रूप इस जगत्के भेद प्रपंचमें निरन्तर यथेष्ट रूपसे दैवके चमकनेपर किस इष्ट या अनिष्ट पदार्थको मैं स्वतन्त्रतापूर्वक प्राप्त नहीं कर सकता, इस प्रकारका अहंकाररूपी अन्धकार कुबुद्धि मनुष्यके अभिप्रायमें समा जाता है। उससे वह ऐसे अनिर्वचनीय पापका बन्ध करता है जिसके उदयके अधीन होकर चिरकाल तक नीच गतिमें होनेवाले अपमानरूपी ज्वरके वेगको भोगता है ॥११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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